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उस आत्मा को भजो जो क्रोध, मान, माया, लोभ से न्यारा है, जिसके बंधमोक्ष भी नहीं है। जिसके राग-द्वेष-मोह नहीं है, जो शुद्ध चैतन्य है जो अपने ही स्वाभाविक गुणों में लीन हैं, मगन है।
उस आत्मा को भजो जिसके स्पर्श, रस, गंध, शब्द, वर्ण का स्पर्श भी नहीं है, न लिंग-भेद है, न मार्गणा है और न ही कोई गुणस्थान है।
ज्ञान-दर्शन- चारित्र के भेद सब व्यवहार मात्र हैं, जो कुछ क्रिया है वह ही कर्म है, निश्चय से इनमें अभेद है इसका विचार कर जब अपने आप में आप स्वयं ही कर्ता हो, स्वयं ही ज्ञाता हो, स्वयं को ही जाने । जब सब भेद समाप्त हो जाए तो पुण्य व पाप का पद कहाँ ठहरेगा? __ तब वस्तु कथंचित् (किसी अपेक्षा विशेष से) है और कथंचित् (किसी अपेक्षा विशेष से) नहीं है, ऐसे स्याद्वाद का प्रमाण भी उसके लिए आवश्यक नहीं रहता। द्यानतराय कहते हैं कि अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव ही शुद्ध है, उसी का अमृतपान कसे इसी में प्रत रहो ।
द्यानत भजन सौरभ