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________________ ( ११७ ) राग सोरठ प्राणी! आतमरूप अनूप है, परतें भिन्न त्रिकाल ॥ टेक ॥ यह सब कर्म उपाधि है, राग दोष भ्रम जाल ॥ प्राणी ॥ कहा भयो काई लगी, आतम दरपनमाहिं । ऊपरली ऊपर रहै, अंतर पैठी नाहिं ॥ प्राणी ॥ १ ॥ भूलि जेवरी अहि, मुन्यो, डूंठ लख्यो नररूप । त्यों ही पर निज मानिया, वह जड़ तू चिद्रूप ॥ प्राणी ॥ २ ॥ जीव- कनक तन मैलके, भिन्न भिन्न परदेश | माहैं, माहैं संध है, मिलें नहीं लव लेश ॥ प्राणी ॥ ३ ॥ घन करमनि आच्छादियो, ज्ञानभानपरकाश । है ज्योंका त्यों शास्त्रता, रंचक होय न नाश ॥ प्राणी ॥ ४ ॥ लाली झलकै फटिकमें, फटिक न लाली होय । परसंगति परभाव है, शुद्धस्वरूप न कोय ॥ प्राणी ॥ ५ ॥ त्रस थावर नर नारकी, देव आदि बहु भेद । निचे एक स्वरूप हैं, ज्यों पट सहज सुपेद ॥ प्राणी ॥ ६ ॥ गुण ज्ञानादि अनन्त हैं, परजय सकति अनन्त । 'द्यानत' अनुभव कीजिये, याको यह सिद्धन्त ।। प्राणी ।। ७ ।। हे प्राणो! इस आत्मा का स्वरूप अद्भुत है, अनुपम है। यह सदैव तीनों काल में पर से भिन्न हैं । राग-द्वेष का जाल भ्रम पैदा करनेवाला है और यह सब कर्मजन्य है । क्या हुआ यदि आत्मा के स्वच्छ दर्पण पर काई लग गई? यह काई ऊपर ही लगी हुई है। उस काई का दर्पण के अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है अर्थात् यदि १३० द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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