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________________ पर के सम्बन्ध से आत्मा में कुछ दोष प्रतीत होने लगा है तो वह सब आत्मा से बाह्य /ऊपर हो है, वह आत्मा में नहीं है, उस दोष से आत्मस्वरूप नहीं बदलता | जेवड़ी (रस्सी) को भूल से साँप समझ लिया और ठूंठ को, देह / मनुष्य के समान समझ लिया उसी प्रकार पर को अपना मान लिया। जब भी तू यह बात समझ लेगा कि देह दूँठ है जड़ है और तू उससे भिन्न है, चैतन्य है तो तू पर से भिन्न आत्मा को जान जायेगा । - जैसे स्वर्ण व मैल परस्पर भिन्न हैं उसी प्रकार यह जीव भी पर से भिन्न है, भिन्न प्रदेशवाला है। दोनों मिले हुए हैं, साथ-साथ हैं, फिर भी दोनों एकदूसरेरूप नहीं होते, परस्पर में किंचित् भी नहीं मिलते। ज्ञानरूपी सूर्य पर कर्मरूपी बादल घने रूप से छा रहे हैं परन्तु बादल से ढक जाने पर भी सूर्य सदैव प्रकाशवान ही रहता है। वह ज्यों का त्यों रहता है। उसका कभी भी किंचित् भी नाश नहीं होता । लाल रंग के सम्पर्क से स्फटिक में लाल प्रकाश झलक जाता है, परन्तु इससे स्फटिक लाल रंग का नहीं हो जाता। इसी प्रकार पर की संगति पर रूप की हैं वह अपने-‍ -रूप, स्व- - रूप की कभी नहीं होती। - जीव के स, स्थावर, मनुष्य, नारकी और देत्र इस प्रकार अनेक भेद हैं। पर इन सबमें मूलस्वरूप निश्चय से एक हो हैं । जैसे कपड़ा अपने मूलरूप में सफेद - स्वच्छ होता हैं, पर भिन्न भिन्न रंगों की संगत से वह भिन्न-भिन्न रंग का दिखाई देता है । ज्ञान आदि गुण अनन्त हैं, पर्यायों की शक्ति भी अनन्त है। घर को जय / जीतने की शक्ति भी अनन्त हैं । द्यानतराय कहते हैं कि इस सिद्धान्त को समझकर इसका अनुभव करो I द्यानत भजन सौरभ ९३१
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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