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________________ राग काफी कर मन! निज-आतम-चिंतौन॥टेक॥ जिहि बिनु जीव भम्रो जग-जौन ॥ कर." .............. आतममगन परम जे साधि, ते ही त्यागत करम उपाधि । कर.॥१॥ गहि व्रत शील करत तन शोख, ज्ञान बिना नहिं पावत मोख ॥ कर. ।। २ ।। जिहिते पद अरहन्त नरेश, राम काम हरि इंद फणेश ।। कर.॥३॥ मनवांछित फल जिहि होय, जिहिकी पटतर अवर न कोय । कर. ॥४॥ तिहूँ लोक तिहुँकाल-मँझार, वरन्यो आतमअनुभव सार । कर.॥५॥ देव धरम गुरु अनुभव ज्ञान, मुकति नीव पहिली सोपान ।। कर. ॥ ६ ॥ सो जानैं छिन है शिवराय, 'द्यानत' सो गहि मन वच काय कर. ॥ ७॥ ए मेरे मन ! तू अपनी आत्मा का चितवन कर, इसके बिना जीव सारे जगत की चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है। जो आत्मस्वरूप के चिन्तन में मगन रह कर परम साधना करते हैं, वे ही कर्मों की उपाधि को छोड़ पाते हैं। ___ जो व्रत-शील आदि का पालन करते हैं, वे इस देह को कृश कर देते हैं, सुखा देते हैं; परन्तु आत्म-ज्ञान के बिना उनको मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। ज्ञान से ही राजपद, राम, कामदेव, विष्णु, इंद्र, धरणेन्द्र का पद पाता है । ज्ञान से ही अरहंत पद प्राप्त होता है। इस ज्ञान से सब मनोवांछित कामनाएँ पूर्ण होती हैं जिसकी समता कोई अन्य नहीं कर सकता। घानत भजन सौरभ १०३
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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