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________________ राग बिलावल कहिवेको मन सूरमा, करवेको काचा ॥ टेक॥ विषय छुड़ावै औरपै, आपन अति माचा ।। कहिवे.॥ मिश्री मिश्रीके कहैं, मुंह होय न मीठा। नीम कहैं मुख कटु हुआ, कहुँ सुना न दीठा॥ कहिवे.॥१॥ कहनेवाले बहुत हैं, करनेको कोई। कथनी लोक-रिझावनी, करनी हित होई ॥ कहिवे.॥२॥ कोड़ि जनम कथनी कथै, करनी बिनु दुखिया। कथनी बिनु करनी कर, 'द्यानत' सो सुखिया ।। कहिवे.॥३॥ अरे मन! तू कहने के लिए तो शूरवीर बनता है पर क्रिया करने के लिए अत्यन्त कमजोर है । अर्थात् मन की उड़ान को कोई थाह नहीं, पर क्रिया करने में अत्यन्त असमर्थ है । अन्य लोगों को तो इन्द्रिय-विषय छोड़ने का उपदेश देता है, परन्तु तू स्वयं उनमें रच-पच रहा है, बहुत रत हो रहा है। मिश्री-मिश्री कहनेभर से मुंह मीठा नहीं होता और न नीम-नीम कहने से मुँह कडुवा होता है। ऐसा होते हुए न कहीं सुना और न ही कहीं देखा। ___कहनेवाले तो बहुत है, परन्तु करने के लिए कोई विरले ही होते हैं । कहना मात्र तो लोक को रिझाने के लिए होता है, जबकि हित तो उसके करने से होता है। करोड़ों जन्म तक कहता तो रहा, अर्थात् कहते-कहते करोड़ों जन्म बीत गये पर किया कुछ नहीं, इसलिए दु:खी हुआ। धानतराय कहते हैं कि जो शक्ति मात्र कहने में अर्थात् बातें करने में व्यय की जाती है उस शक्ति को जो कोई क्रिया करने में व्यय करता है वह ही सुख पाता है अर्थात् जो कहता नहीं है बल्कि करने में अपनी शक्ति का उपयोग करता है वही लाभ पाता है। १०२ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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