SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७८) राग विलावल आतम काज सँवारिये, तजि विषय किलोलैं ।। टेक ॥ तुम तो चतुर सुजान हो, क्यों करत अलोलैं । आतम.।। सुख दुख आपद सम्पदा, ये कर्म झकोलें । तुम तो रूप अनूप हो, चैतन्य अमोलैं॥आतम.॥१॥ तन धनादि अपने कहो, यह नहिं तुम तोलैं। तुम राजा तिहुँ लोकके, ये जात निठोलैं ।। आतम.॥२॥ चेत चेत 'द्यानत' अबै, इमि सद्गुरु बोलें। आतम निज पर-पर लखौ, अरु बात ढकोलैं॥आतम. ॥३॥ अरे भाई ! तू इन्द्रिय भोग और विषय-वासना की लहरों में अपनी आमोदप्रमोद की क्रिया को छोड़कर अपनी आत्मा को सँभालने-सँवारने के कार्य में स्त हो जा अर्थात् उस व्यवस्था को सुधार ले जिससे तेरी आत्मा का कल्याण हो । अरे, तुम तो चतुर हो, ज्ञानी हो, फिर क्योंकर जड़ के समान व्यवहार करते हो? सुख दुख, आपदाएँ व सम्पत्तियाँ - ये सब तो झकोरे हैं। (पेन्डुलम को। भाँति) एक दिशा से दूसरी और दूसरी से पहली के बीच ही धकमपेल है। पर तुम अनुपम रूप के धारी चैतन्य हो, जो अमूल्य है। ___तुम जिस धन आदि वैभव को अपना कहते हो, उससे तुम्हारी कोई समानता नहीं है। तुम तीन लोक के राजा हो, स्वामी हो। ये सारी बातें तो अकार्य की, बेकार की, निरर्थक बातें हैं। ये सब निठल्लेपन की बातें हैं। द्यानतराय कहते हैं कि अब सद्गुरु समझाते हैं कि अब तू चेत जा। आत्मा को आत्मा जान, निज को निज व पर को पर जान। इस भेदज्ञान के अलावा सब बातें व्यर्थ हैं। अलोल - स्थिर (जड़); निठोल - निठल्ले; ढकालै -+ डंकोन - व्यर्थ, ज्वार बाजरा का दूँठ। धानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy