SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ HTRAMANACHExeixrancersarasanasuREasaseaxmalist नीर-क्षीर वत् मिलती है और कर्म संज्ञा प्राप्त कर लेती हैं। तत्समय में जीव के जिस प्रकार के तीन मंद रूप परिणाम होते हैं उसी मात्रा में तद्नुसार फलदान शक्ति आगत वर्गणाओं में हो जाती है। तब ये कर्म संज्ञा प्राप्त होती है। अन्य मतावलम्बी क्रिया-काण्ड मात्र को ही कर्म कहते हैं। पुण्य-पाप रूप क्रियाओं को ही वे शुभाशुभ कर्म मान सन्तुष्ट हैं | जैन सिद्धान्त सर्वज्ञ प्रणीत होने से इस रहस्य को अवगत कराता है ॥ २४ ।। • कर्म के भेद ज्ञान दर्शनावरणि पुन, वेदनी मोहनीय पर्म । आयु नाम अरु गोत्र मिलि, अंतराय वसु कर्म ॥ २५ ॥ अर्थ – कर्म मूल में आठ हैं। यथा १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और अन्तराय । इनका स्वरूप निम्न प्रकार हैं ॥ २५ ॥ २४, जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥ पुरुषार्थः ॥ अर्थ - जीव कृत परिणाम का निमित्त पाकर - उसकी उपस्थिति में पुद्गल रूय कार्माण वर्गणायें स्वयं ही अपनी उपादान योग्यता से कर्मभाव को प्राप्त होती हैं अर्थात ज्ञानावरणादि कर्म रूप परिणमन कर जाती हैं।। २४ ॥ २५. सूत्र - "आद्योज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयाथुर्नामगोत्रान्तरायाः।" तत्त्वार्थ सूत्र अ.८। __अर्थ - आदि का प्रकृति बन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय रूप है। प्रकृति बन्ध का अर्थ - ज्ञानावरणादि का जो अपना स्वरूप है उस-उस स्वरूय की प्राप्ति ही प्रकृति बन्ध है। यथा-... NAKAKUHA ANANZARO HAYANGKARA MAULANA धर्मानन्द श्रावकाधार-~१०२
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy