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________________ XXSANKRANSURATISASUTREATMEESASARMEMBERSasumaanusa • प्रामाणिक धर्म स्वरूप वीतराग सर्वज्ञ का, कथित धर्म प्रमाण है। क्योंकि पुरुष प्रामाण्य से, होते वचन प्रमाण हैं ।। २३ ।। अर्थ - “कर्ता की प्रमाणता से वचन प्रामाणिक होते हैं यह एक अकाट्य सिद्धान्त है। जो कर्ता सर्वज्ञ, सर्व का ज्ञाता है, राग-द्वेष परिणति से रहित वीतरागी है और अशेष प्राणियों का हित चिन्तक है, उसी के द्वारा प्रणीत धर्म ही प्रामाणिक धर्म है। क्योंकि आप्त ही प्रामाणिक सिद्ध हैं। अतएव उनके वचन वाणी ही राग-द्वेष रहित, पक्षपात विहीन होना संभव है। अतः अहिंसा धर्म ही सच्चा धर्म कहा जा सकता है, अन्य नहीं ।। २३ ।। • कर्म का लक्षण परिणामों का निमित्तेलहि, पुद्गल के स्कंध । फलद कर्म शक्ति लिए, करत आत्म सम्बन्ध ॥ २४ ।। अर्थ - संसार में अनन्तानन्त कार्माण (कर्म रूप होने की योग्यता वाले) परमाणु सर्वत्र भरे हैं। ये परमाणु एक साथ अनन्तों मिलकर वर्गणा रूप परिणति करते हैं। अनादि से कर्म बंध सहित संसारी जीव अपने राग-द्वेष रूप परिणामों से परिणति करता है, उस परिणमन से मन, वचन, काय की परिस्पंदता के साथ आत्म-प्रदेशों में भी परिस्पन्दन होता है, उस समय वे कार्माण वर्गणाएँ स्वभाव से चुम्बक से लौह की भांति आकृष्ट होकर आत्म प्रदेशों में एकक्षेत्रावगाही २३. सर्वविद्वीतरागोक्तो धर्मः, तमेव सूनृत्तं व्रजेत् । प्रामाण्यतो यतः पुंसो वचः प्रामाण्यमिष्यते ॥ अर्थ - सर्वज्ञ वीतराग देव प्रणीत धर्म में पूर्वापर विरोध कपट भाव नहीं होता है अतः प्रामाणिक मानकर उसे ही स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि वक्ता की प्रमाणता से वचन में प्रमाणता आती है।। २३॥ MARAEREURUSacsiSUSURGEORasmasaseDMASKETERMINANCE विजिपद श्रावकाचार-१०१
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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