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परिचय
आचार्य आदिसागरजी अंकलीकर
भगवान महावीर से १३ वीं सदी तक दिगम्बर मुनि परम्परा निर्दोष चलती रही। बाद में १९ वीं सदी तक कोई भी साधु निर्दोष देखने में नहीं आया । २० वीं सदी में प्रथम आचार्य आदिसागर अंकलीकर हुए हैं।
आपका जन्म भाद्रपद शुक्ला ४ सन् १८६६ को अंकली ग्राम में हुआ । आपके पिता सिद्धगौड़ा, माता अक्का बाई थी। आपका नाम शिवगौड़ा था। गांव के जागीरदार थे, धार्मिक थे, न्याय नीतिज्ञ थे, तेजस्वी, शूरवीर, महापुरूष थे । किवाड़ों को मुक्कों से तोड़ना, कच्चा कद्दू खा जाना आदि क्रीड़ाएँ थी। कर्मों को क्षय करने में पराक्रमी थे, दीन-दुःखी जीवों के लिए दयालु थे। स्वाभिमानी थे ।
४७ वर्ष की आयु में मगसर शुक्ला २ (दोज ) को कुन्थलगिरि पर सिद्धों की साक्षी में स्वयं ने निर्वाण दीक्षा धारण की और आदिसागर नाम हुआ। भारत के सम्पूर्ण तीर्थों का दर्शन किया। आप पंचाचार का पालन करते एवं अपने शिष्यों को कराते थे ।
आपके निर्दोष आचरण को देखकर चतुर्विध संघ ने जयसिंगपुर में श्रुतपंचमी सन् १९१५ को आचार्य पद - दिया ।
अपने ज्ञान को दिव्य देशना, उद्बोधन, जिनधर्म रहस्य (संस्कृत), वचनामृत, प्रायश्चित्त विधान (संस्कृत), शिवपथ (संस्कृत), आदिशिक्षा इत्यादि ग्रन्थों में लिपिबद्ध किया है।
अनेक श्रावक-श्राविकाओं को दीक्षायें दी है। फाल्गुन शुक्ला ग्यारस ४ मार्च सन् १९४३ को मुनि महावीरकीर्ति के नाम से दीक्षित किया और चातुर्मास में अपना आचार्य पद दिया है। पृथक्त्व दिनों तक अनशन पूर्वक ध्यान कर पारणा करते थे ।
नैत्र ज्योति मंद होने पर फाल्गुन कृष्णा तेरस, २१ फरवरी सन् १९४४ को ऊदगाँव (कुञ्जवन) में १४ दिन के बाद समाधि की है। आपके दर्शन के लिए सरकार ने प्रतिदिन दर्शनार्थियों के लिए निःशुल्क रेल चलाई थी। आकाश में देवों मे जय घोष एवं वाद्य घोष किया था।
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