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KÜSMERKUNG
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भगवान् महावीर के तीर्थ में पार्श्वनाथ तीर्थंकर के संघ के किसी गणी का शिष्य मस्करी पूरन नाम का साधु था उसने लोक में अज्ञान मिथ्यात्व का उपदेश दिया। ऐसा जीवकाण्ड प्रबोधिनी टीका में कथन मिलता है।
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बादरायण, वसु, जैमिनी आदि इसके अनुयायी हैं। प्रश्न- बादरायण, बस्सु जैमिनी आदि तो वेद विहित क्रियाओं का अनुष्ठान करते हैं. वे अजानी कैसे हो सकते हैं ? राजवार्तिक में आचार्य ने इसका समाधान इस प्रकार किया है
उत्तर- इनने प्राणी वध को धर्म माना है, परन्तु प्राणी वध तो पाप का ही साधन हो सकता है, धर्म का नहीं। इनकी यह मान्यता अज्ञानमय है इसलिये इन्हें अज्ञान मिथ्यात्वी कहा है।
और भी ज्ञानदर्शनावरणतीव्रोदयाक्रान्तानां एकेन्द्रियजीवानां -
ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म के तीव्र उदय से आक्रान्त एकेन्द्रिय आदि जीवों के हिताहित का विवेक न होने से उनके भी अज्ञान मिध्यात्व की मौजूदगी है।
और भी अनेकान्तात्मकं वस्तु इति वस्तु सामान्ये, उपयोगलक्षणो जीव इति वस्तु विशेषेऽपि तत् प्रति अज्ञानजनितं श्रद्धानं अज्ञानं । जीवाद्यर्थानामिदमेव ईदृशमेव तत्त्वमिति आप्तवचनबोधाभावात् अज्ञानमेवेति श्रद्धानं अज्ञानमिध्यात्वं ।
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भावार्थ - वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सामान्य से प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक होते हुए भी विशेष दृष्टि से अपने-२ लक्षणों से युक्त हैं जैसे जीव का लक्षण उपयोग है। वीतरागी जिनेन्द्र देव के अनेकान्त सिद्धान्त से अनभिज्ञ व्यक्ति वस्तु यही है ऐसा ही है इस प्रकार निर्णय नहीं कर पाता अतः अज्ञानी है और उसका वह अज्ञान भी मिध्यात्व से युक्त होने से अज्ञान कहलाता है।
जैसा कि धवला पुस्तक एक में बताया है -
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न्यूनता आदि दोषों से युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए तत्संबंधी बोध को अज्ञान कहते हैं। नयचक्र के अनुसार संशय, विमोह, विभ्रम से युक्त ज्ञान अज्ञान कहलाता है अथवा कुशास्त्रों का अध्ययन पाप का कारण होने से वह भी अंज्ञान है ॥ १५ ॥
KANANMAN ANATAKA MASALAHANANARUSZCANAN धर्मानन्द श्रनार ५८
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