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________________ Musum SAKARSAATREATREATMEANINMaraAMANKARISAR • विनय मिथ्यात्व का लक्षण सबही मत हैं एक से, देव शास्त्र गुरु धर्म । जाँच बिना मूरख करें, तदपि विनय के कर्म ॥ १४ ॥ ..अशक्तेः सर्वत्र संशय एवेत्यभिप्रायः संशयमिथ्यात्वं। जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अगृहीत अर्थ का ग्राही है, देशान्तर और कालान्तर में जो व्यभिचरित होता है ऐसे एकान्तवाद का विरोधी अनेकान्त सिद्धान्त मय आप्त का वचन ही प्रामाणिक है क्योकि तत्त्व यही है ऐसा ही है इस प्रकार का समीचीन निर्णण जिनवचन से ही संभवित है. एकान्तवादी की उक्तियाँ निर्णयात्मक नहीं होने से, निर्णय को प्राप्त करने में असमर्थ होने से मिथ्या हैं उन्हीं में एक भेद संशय मिथ्यात्य है। यह संशय को उत्पन्न करता है किसी भी एक निर्णय तक नहीं पहुँचने देता है इसलिये इसको संशय मिथ्यात्व कहते हैं। आगे कैनयिक मिथ्यात्व का स्वरूप बताते हैं।। १३ ।। १४. सर्वेषामपि देवानां समयानां तथैव च, यत्र स्यात् समदर्शित्वं, ज्ञेयं वैनयिक हिं। अर्थ - सभी देवताओं को चाहे सरागी हो या वीतरागी हो सब समान रूप से विनय के पात्र हैं, सभी प्रकार के शास्त्र. वे आप्त वचन हों या अनाप्त वचन समान रूप से पूजनीय हैं, इस प्रकार गुणों और अवगुणों को महत्त्व दिये बिना मात्र विनय करना ही जो धर्म मानता है उसे विनय मिथ्यात्र कहते हैं। भावार्थ - वैनयिक मिथ्यादृष्टि अविवेकी तापस होते हैं। इनका कहना है कि पापी हो या पुण्यात्मा. गुणी हो या मूर्ख सबकी समान रूप से विनय करो। यह मिथ्या मान्यता मोक्षमार्ग में बाधक है इसलिये हेय है, त्याज्य है, मिथ्यात्व का प्रतीक है। और भी - "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपतया निर्गन्धवेशविनापि विनयेनैवमुक्तिः भवति इति श्रद्धानं वैनयिकर्मिथ्यात्वं । ___ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के धारी निन्ध मुनि हुए बिना भी मात्र विनय से मोक्ष हो जाता है, इस प्रकार की मान्यता ही वैनयिक मिथ्यात्व है।। १४॥ RAMANANAMUscrizatamANaraasaramatiPEATMANASANK भागद श्रावपाचार-५६
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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