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सम्राट, ज्ञानी-ध्यानी, हितोपदेशी आचार्य शिरोमणि श्री आदिसागर जी अंकलीकर से प्राप्त कर अनेक ग्रन्थों में परिणत कर समाज के बीच में है। वह भव्यों के लिए कल्याणकारी हुआ। उन्हीं ग्रंथों में से एक “धर्मानन्द श्रावकाचार" है। यह उनकी एक अनुपम कृति है जो श्रावकों को शुद्धात्मा की प्राप्ति कराने में अद्वितीय सिद्ध हुई है। हिन्दी काव्य में है, सरस-सरल मिष्टभाषा में होने से सर्वोपयोगी है। इसमें प्राण डालने वाले अथवा चार चांद लगाने वाले या ज्ञान में विशेषता लाकर श्री १०५ ज्ञान चिंतामणि, रत्नत्रय हृदय सम्राट, गणिनी कुञ्जर आर्यिका शिरोमणि श्री विजयमति माताजी ने गणधर का कार्य किया है। उसकी व्याख्या कर सर्वजनोपयोगी सिद्ध कर दिया है। यह परंपरा आचार्य व श्रुत ज्ञान में अक्षुण्ण है तथा कार्य भी अक्षुण्ण रीति का है। वर्तमान में श्रावकाचार पूर्वक श्रमणाचार के जन्मदाता या जन्मश्रोत सिद्ध है। इस कृति का मूल जन्म सं. २४१३ में हुआ, द्वितीय २४८६, तृतीय २४९१, चतुर्थ २५१४ में होने के बाद यह प्रकाशन हो रहा है। इस कृति का प्रकाशन कार्य सर्व साधारण व्यक्तियों के लिए अति आवश्यक समझकर किया है। यथार्थता तो यही है कि गागर में सागर भरा हुआ है। जिनवाणी का प्रकाशन महान कार्य है। अतः मेरा उसके लिए शुभ आशीर्वाद है।
दीपावली २००३
आचार्य सन्मति सागर