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________________ SZCZUTEASCUASACAGAGAUACANASANAYASASAZASZEKEREAGHUA • दिव्रत के अतिचार तिरछी उपरी नीचली, दिक सीमा व्यतिकार । क्षेत्र वृद्धि हद भलना, दिव्रत के अतिचार ॥। ९ ॥ अर्थ - तिरछी, ऊपर नीचे दिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन करना, क्षेत्र को बढ़ा लेना, की हुई मर्यादा को भूल जाना ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार हैं। भावार्थ - १. तिरछी व्यतिकार समान भूतल में जितना योजन क्षेत्र रखा है या जिस नगर या नदी पर्वत तक दिशा विदिशा में रक्खा है उनसे कुछ आगे बढ़ जाना तिरछी व्यतिकार है। - २. ऊपर व्यतिकार - पर्वत पर ऊँचे जितनी ऊर्ध्व दिशा की मर्यादा रक्खी थी उससे ऊपर चढ़ जाना ऊपर व्यतिकार है । ३. नीचे व्यतिकार कुएँ में बावड़ी में कोलों की जमीन के भीतर खानों में प्रवेश करने आदि से नीचे की मर्यादा का उल्लंघन करना नीचे व्यतिकार अतिचार है। - ४. क्षेत्रवृद्धि - जितना क्षेत्र मर्यादित हैं उससे कुछ अधिक क्षेत्र लोभ के वशीभूत कार्य में ले लेना यह क्षेत्र वृद्धि अतिचार है। ५. हद भूलना - दिशाओं में की गई मर्यादा को भूलकर कुछ अधिक क्षेत्र को उपयोग में ले लेना हद भूल नामका अतिचार है। ८. वास्तुक्षेत्राष्टापद हिरण्य धन-धान्य दासदासीनाम् । कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रमाः पञ्च ।। १८७ ।। पु. सि. । अर्थ- गृह, भूमि क्षेत्र, सुवर्ण, चाँदी, धन, धान्य, दास, दासी और वस्त्रादि ये दश प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं इनका प्रमाण कर उसका उल्लंघन करना अतिचार है। इन भेदों के पाँच युगल होते हैं यथा गृहक्षेत्र, सोना-चाँदी, धन-धान्य, दासी दास और वस्त्रादि इनके प्रमाण का अतिक्रमण करना पाँच अतिचार कहलाते हैं ॥ ८ ॥ ZAGAGASACREAGÁLÁSÁLAGANASSSASASABAYAGÁCSLAERSAYAND 1 धर्मानन्द श्रावकाचार ३०० 1
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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