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________________ LAZKAN TARAVANSAT LAANEGARATASARATUALANGSUIREK यहाँ शंका हो सकती है कि स्तुति और प्रशंसा में क्या अन्तर हैं ? इसका उत्तर यह है स्तुति वचनात्मक होती है और प्रशंसा मन से होती है। इस प्रकार ये सम्यग्दर्शन के पांच अतिचार हैं इनसे सम्यक्त्व में मलिनता आती है अतः इन्हें नहीं लगने देना चाहिये तभी सम्यक्त्व निर्दोष रह सकता है॥३॥ • अहिंसा अणुव्रत के अतिचार ताड़न, छेदन, बांधना, अधिक लादना भार । खान-पान में त्रुटि करन, ये अहिंसा अतिचार ॥४॥ अर्थ - (ताड़न)-लकड़ी, बेंत, अंकुश आदि से उन्हें मारना। (छेदन)पशु-पक्षी आदि की नाक, कान, जीभ छेदना । (बांधना)- एक स्थान में बांधकर रखना। (अधिक भार लादना)-शक्ति से अधिक उन पर भार लादना। ३.शंका कांक्षा विचिकित्साऽन्यदृष्टि प्रशंसा संस्तवाः सम्यग्दृष्टे रतिचारा: ।। मो. शा. अ.७, सू. २३। । २. शंका तथैव कांक्षा विचिकित्सा संस्तवोऽन्यदृष्टिनां । मनसा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥ १८२ ।। पु. सि.। अर्थ - १. यहाँ श्री उमास्वामी महाराज सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाले दोषो अतिचारों का निरूपण करते हैं। वे पाँच हैं - १. शंका, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. सम्यक्त्व विहीन मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा, ५. मिथ्यात्व का स्तवन । १. शंका - सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्व स्वरूप में सन्देह करना। २. कांक्षा - परलोक में विषय-भोग सामग्री पाने की इच्छा से धर्मकार्य करना, ३. धर्म और धर्मात्माओं के प्रति ग्लानि करना विचिकित्सा है। ४. मिथ्याप्रभावनादि देखकर उनकी प्रशंसा करना और ५. मिथ्यादृष्टियों के चमत्कारादि देख उनकी स्तुति करना।। २. शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि की वचन से स्तुति करना तथा मन से संस्तवन करना प्रशंसा कहलाता है। विशेष अर्थ में लिखा जाता है ।। ३ ।। NASAANEERERATRIKEasasaramresmasaxsasasamisaeRMIRE घलिन्द श्रावकाचार -२९२
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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