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श्रावक व्रत में प्रत्येक के पांच-पांच अतिचार हैं, अतः उनका निवारण करो ।
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भावार्थ - सम्यक्त्व में या व्रतों में अंश रूप से दूषण आना ही अतिचार है । इसी बात को पंडित श्री आशाधर जी ने सागार धर्मामृत में कहा है। " सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंश भजनं" कोई पुरूष किसी विषय की मर्यादा रूप से प्रतिज्ञा ले चुका है उसके व्रत में एकदेश भंग होना अतिचार कहलाता है। एक देश व्रत का भंग क्या कहलाता है तो इसका समाधान इस प्रकार है कि व्रतों का पालन बहिरंग अन्तरंग दोनों रूप से होता है, यदि केवल अंतरंग में व्रत भाव हो बहिरंग में उसके अनुकूल आचरण न हो तो भी व्रत की रक्षा नहीं हो सकती है और न वह व्रत रूप ही प्रवृत्ति ही कहलाती है। तथा यदि बाह्य में व्रताचरण हो और अन्तरंग में मर्यादित प्रवृत्ति न हो तो उसे व्रत नहीं कहा जा सकता, अतः अन्तरंग - बहिरंग रूप से जो पाला जाता है वही व्रत कहलाता है ।
व्रत में या तो अन्तरंग भावों में कुछ दूषण आता है अथवा बहिरंग प्रवृत्ति में कुछ दूषण आता है तो वह अतिचार कहलाता है और जहाँ पर अन्तरंग बहिरंग दोनों में व्रत रक्षा का भाव नहीं रहता वहाँ उसे अनाचार कहा गया है। व्रत भंग के सहायक परिणाम चार हैं- अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार |
कहा भी है
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क्षतिं मनः शुद्धि विधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शील व्रतेर्विलंघनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं, वदन्त्यनाचारमिहातिसक्ताम् ।। ९ ।।
सामायिक पाठ
अर्थ मन की शुद्धि की क्षति होना अतिक्रम है । व्रत का उल्लंघन होना व्यतिक्रम है। विषयों में एक बार प्रवृत्ति होना अतिचार है। बार-बार विषयों में प्रवृत्ति होना अनाचार है।
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AGABHEAGAYASABABABAEAEZZAUZENEAKAEAEA धर्मानन्द श्रावकाचार २८९