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________________ SACASASAS SAGRERENUREAUASNE * अथ नवम अध्याय CANASAEGSZER व्रतों की रक्षा दूषित चारित कीलवत, बुधमने दुभत अवारी जानि व्रती गुणव्रतनि, किमि पाले सह अतिचार ॥ १ ॥ अर्थ - दोष युक्त चारित्र कील के समान बुद्धिमानों के मन को अपार कष्ट पहुँचाता है ऐसा जानकर क्या गुणवान व्रती पुरुष अतिचार सहित व्रत पालेगा अर्थात् नहीं पालेगा। भावार्थ - जिस प्रकार कील चुभने पर या कांटा लग जाने पर उसका घाव बहुत भारी कष्ट देता है। उसी प्रकार व्रती पुरुष व्रतों को धारण करके यदि उसका अतिचार सहित पालन करता है, तो निरन्तर किये गये दोष उसको 9 बार-बार अनुभव में आते हैं और पापास्रव का कारण बनते रहते हैं । अन्ततः दुर्गति में ले जाते हैं, अतः विवेकी प्राणी का यही कर्त्तव्य है कि वह गुण, दोष का भली प्रकार ज्ञानकर निरतिचार व्रतों का पालन करें ॥ १ ॥ अतिचार का लक्षण व्रत गुण दूषित अंश ही कहलावे अतिचार । श्रावक व्रत में लगत जो पन-पन उन्हें निवार ॥ २ ॥ अर्थ- व्रतों में थोड़ा दूषण लगने का नाम ही अतिचार कहलाता है, १. " सागारो वा यन्निः शल्योव्रतीष्यते " अर्थ - जो गृहस्थ माया, मिथ्यात्व व निदान से रहित निःशल्य रहता है वही श्रावक व्रती कहलाता है । शल्य का अर्थ कांटा (कंटक) है। जैसे कांटा पांव में चुभकर पीड़ा देता है उसी प्रकार ये तीनों शल्य व्रतों की घातक हो व्रती नहीं बनने देती। अतः इनका त्यागी ही व्रती होता है ॥ १ ॥ SANANANARINAR SZEZERCAYAYASASÁGASAVASANAYASASAKAER धर्मानन्द श्रावकाचार २८८
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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