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ARREREGMEREIGEEATREERESAERSasarasARATurnsaAERSERECReaca • और भी
पर संयोग से जीवन पाये दुःख हमेश । इससे पर तन आदि को तजि निज हरु कलेश॥१२॥
अर्थ - दूसरे के संयोग से इस जीवने नित्य ही दुःख प्राप्त किया है। इसलिए पर शरीर आदि का त्याग करके अपनी आत्मा से क्लेश का हरण करो।
भावार्थ - जीव संसार रूपी वन में पर पदार्थों के संयोग के कारण उनमें ममत्व भाव स्थापित करने से ही संसार में अनेक प्रकार के दुःखों को प्राप्त होता है। इसलिए समाधिस्थ क्षपक जो पुद्गल आदि पर पदार्थों से क्लेश होता है अत: इसका त्याग करो। अपनी आत्मा में लीन होओ ॥१२॥ • और भी
संयोगज सब भाव को, त्यागि संस्तरा धार। मृत्यु समय परमेष्ठी गुण, ध्यावत तज तन भार ।। १३ ॥
अर्थ - इस प्रकार क्षपक संयोगज रूप सभी भावों का त्याग करें एवं संस्तर को धारण करें तथा मरण के समय पंच परमेष्ठी के गुणों का ध्यान करता हुआ इस भार स्वरूप शरीर का त्याग करें।
भावार्थ - सल्लेखना व्रत धारी श्रावक जितने भी भव वन में भ्रमण कराने वाले संयोगज रूपी विकारी भाव हैं उनका त्याग करें तथा पाषाण, भूमि, तृण, काष्ठ अर्थात् पलक इन संस्तरों में से किसी एक संस्तर को धारण १२. संयोमतो दुःखमनेकभेदंयतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी।
ततस्त्रिथा सो परिवर्जनीयो पिपासुना निवृतिमात्मनीनां ।। २८ ॥ अर्थ - जन्म संसार रूपी वन में पर संयोग अर्थात् कर्म संयोग से नाना प्रकार के दुःखों को प्राप्त करता है। अतएव संसार सागर के कष्टों से त्राण-रक्षण पाने की इच्छा करने वाले भव्यात्माओं को मन, वचन, काय से पर पदार्थ जो कर्मार्जन के हेतु है सम्बन्ध त्याग देना चाहिए।।१२।।। SamareATREERessessmanasaezEXEEnasamRRIERERNANRAREKera
धर्मानन्द श्रावकाचार २८५