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________________ REASEAwasanasasANGAsasarsassassusarSREASKEasara *शुद्ध ध्यान मेरा आतम नित्य इक, निर्मल ज्ञान स्वरूप। बाकी बाह्य पदार्थ जग, सब संयोगज रूप ॥११॥ अर्थ - मेरा आत्मा ही सदा एक निर्मल स्वरूप है बाकी जग के सभी बाह्य पदार्थ संयोग रूप है। भावार्थ - मेरी आत्मा एकाकी ही सदा शाश्वत और नित्य स्वरूप है तथा वह कर्म मल से रहित और ज्ञान स्वभावी है, इसके अलावा जितने भी संसार के बाहरी पदार्थ राग द्वेषादि हैं वे सब कम जनित हैं एवं नश्वर विनाशीक है तथा संयोगज स्वरूप हैं ॥११॥ ...रखते हैं। इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए शरीर से छुटकारा पाना अनिवार्य है और शरीर से छुटकारा दिलाने वाली मृत्यु देवी है, अतः सत्पुरुष सुखसम्पदा दाता मृत्यु को मित्र ही स्वीकार करते हैं। २. गर्भादि के घोर दुःखों से संतप्त प्राणी शरीर रूपी पिंजरे के अन्दर कैदी बना जीवन भर अनेक दुःखों को सहता रहता है । इस दुःखद देह-पिंजड़े से निकाल कर स्वतंत्र बनाने वाला मृत्यु रूपी ही भूमिपति राजा है।॥ १०॥ ११. एकः सदाः शाश्वति को ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिर्भवाः संत्यपरे समस्ता न शाश्वतः कर्म भवाः स्वकीयाः॥ २६॥ द्वा. त्रि.॥ अर्थ - संसार में अनन्त पदार्थ खचाखच भरे हैं, परन्तु ये सभी आत्मभाव से भिन्न हैं आत्मार्थी विचार करता है, मेरा तो एक आत्मा ही है, यह अमर है, सतत रहने वाली है, अत्यन्त शुद्ध निर्मल है, समाधिगम्य है अर्थात् एकाग्र स्वभाव में स्थिर होने पर प्राप्त है। बाह्य समस्त पदार्थ नश्वर हैं, क्षणभंगुर हैं, वे मेरे कैसे हो सकते हैं जबकि मेरे स्वभाव से वे सर्वथा भिन्न ही हैं। सर्व सम्बन्ध जो बाह्य में दिखता है वह कर्म जन्य है। इस प्रकार विचार कर स्व-स्वभाव में रहना चाहिए ॥ ११ ॥ RasuwasasamaskesasasaramsasasasaxsasuTusMASKususa धमणि श्वाचकाचार -२८४
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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