SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ susarasREKHASumaniasalsasareewanausxeasasurseasiesa सामायिक काल में, सामायिक करने वाले के मोह नहीं होता है। अतः मात्र सामायिक काल में गृहस्थ मुनि के समान अवस्था को प्राप्त होते हैं ॥ ७ ॥ • प्रोषथोपवास का लक्षण-- आठे चौदशि पर्व दिन, विषय कषाय अहार। तजे दोय इक भुक्ति युत, गहि उपास व्रत सार ॥ ८॥ अर्थ - एक माह में दो अष्टमी और दो चतुर्दशी ये चार अनादि से ही पर्व कहलाते हैं। धर्म में अनुराग रखने वाला गृहस्थ एक माह में चार दिन तो सभी पाप के आरंभ और इंद्रियों के विषयों को त्याग करके, कषाय को नष्ट करके, सप्तमी और त्रयोदशी को एक बार भोजन करके चारों प्रकार के आहार का त्याग करके, व्रत शील संयम सहित उपवास धारण करे उसे ही प्रोषधोपवास जानो॥८॥ ७. सामायिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपसृष्ट मुनिरिवगृही, तदा याति यतिभावम् ॥ १०२॥र. प्रा. चा.। अर्थ - श्रावक सामायिक के समय समस्त आरम्भ का त्याग होने से तथा शरीर पर वस्त्राभूषण के अतिरिक्त अन्य सर्व परिग्रह का त्याग कर देने से वह श्रावक वस्त्रलपेटा होने पर भी मुनि दिगम्बर साधु की समानता को प्राप्त होता है। अर्थात् उतने समय पर्यन्त निर्मल परिणामी होने से विशेष पुण्यार्जन और पापनाश करता है। अर्थात उपसर्ग से ओढ़े हुए वस्त्र सहित मुनिराज की भाँति होता है ।। ७ ।। ८. १. पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु ! ___ चतुरम्यवहार्याणां, प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥ १०६ ॥ र. क. श्रा. अर्थ - पर्वणि-चतुर्दशी और अष्टमी के दिन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना तथा अन्य भी दिनों में इच्छानुसार उपवास करना तथा पूर्व दिवस एवं अन्तिम दिन एक भुक्ति करना प्रोषधोपचास कहलाता है। प्रोषध का अर्थ है एकासन भोजन अर्थात् दिन में एक ही बार भोजन करना और चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है । एकासन पूर्वक उपवास प्रोषधोपवास है । यथा सप्तमी को एक भुक्ति ... WAKAKASARRUAN NAUTĀNA KUANGALIA ZEUKABU धमानन्द श्रावकाचार-~२५५
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy