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________________ KANASAM IGANANA नहीं हो जहाँ तिर्यंचों का पक्षियों का संचार न हो, जहाँ पर सर्प, बिच्छू, कनसला इत्यादि जीवों द्वारा बाधा नहीं दी जा सके ऐसे विक्षेप रहित एकान्त स्थान में वह वन हो जीर्ण बाग या मकान हो, चैत्यालय हो, धर्मात्माओं का प्रोषधोपवास करने का स्थान हो ऐसे एकांत स्थान में प्रसन्न चित्त होकर सामायिक में १०८ बार णमोकार मन्त्र जपता हुआ अपनी आत्मा का ध्यान करें || ६ || • इसका फल - सामायिक करते समय अद्य संचय नहीं होय । परिषह उदये वस्त्रवत मुनि सम कहिये सोय ॥ ७ ॥ अर्थ - सामायिक के समय गृहस्थ मुनि के समान किसी भी प्रकार का आरम्भ और परिग्रह नहीं होता तथा शरीर पर जो कपड़ा रहता है, उनसे भी ६. १९. एकान्ते सामायिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ।। ९९ ।। र. श्री. ॥ अर्थ - सामायिक किसी एकान्त स्थान जहाँ मनुष्य पशु आदि का विशेष संचार नहीं हो ऐसे स्थान में, वन प्रदेश, घर, चैत्यालय आदि शान्त प्रदेश में प्रसन्न चित्त से एकाग्रता से जहाँ चित्त चञ्चल न हो ऐसे निरापद स्थान में सामायिक करने का अभ्यास करें। अधिक से अधिक उत्तरोत्तर बढ़ावें ॥ ५ ॥ - २. अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥ अर्थ - श्रावक सामायिक में विचार करें - चिन्तन करें कि यह संसार शरण रहित है, कोई शरण दायी नहीं है, अशुभ है, क्षणभंगुर है, विनाशीक है, जीवन-मरण व अशेष पदार्थ नाशोत्पाद करने वाले हैं, आत्म स्वरूप से सर्वथा भिन्न हैं, मोक्ष इससे पूर्ण भिन्न हैं । यहाँ अनन्त दुःख हैं तो मोक्ष में अनन्त सुख, आनन्द है। ऐसे कष्टदायी संसार से रहित हो मुझे उसी अविनाशी, अनन्त आत्मोत्थ सुख प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए ॥ ६ ॥ SANASAHASANG ACASASACACACACACACAUZUASABASABASA धर्मानन्द श्रावकाचार २५४
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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