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अर्थ बिना प्रयोजन पृथ्वी, जल, अग्नि वायु का आरम्भ करना, अर्थात् बिना प्रयोजन पृथ्वी खोजना, कुरेदना, जल उछालना, तथा छिड़कना आवश्यकता से अधिक जल ढोलना आदि। अग्नि को जलाना, बुझाना, पवन करना, बिना प्रयोजन पंखा चलाना, व्यर्थ में वनस्पति तोड़ना, वृक्ष पर पत्थर फेंकना और व्यर्थ में घूमना-फिरना तथा दूसरों को घुमना फिराना आदि अप्रयोजनीय कार्यों को आचार्य ने प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड कहा है ॥ १३ ॥
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इनका फल
मन वच तन से लगत जो वे मतलब के पाप ।
इनके त्याग से गुणवती, पुण्य उपाजें आप ॥ १४ ॥
अर्थ - जो दिनभरी श्रावक पवन काय से होने वाला विष्णुयोजन पाप को त्याग देता है। उस त्याग से वह पुण्य उपार्जन करता है ॥ १४ ॥
१३. १. क्षिति सलिल दहन पवनारम्भ विफलं वनस्पतिच्छेदं ।
सरणं सारणमपि च प्रमाद चर्यां प्रभाषन्ते ॥ ८० ॥ २. श्रा । २. भूखनन वृक्ष मोट्टन शाडवल दलनाम्बुसेचनादीनि ।
निष्कारणं न कुर्याद्दल फल कुसुमोच्चयानपि ।। १४३ ॥ पु. सि. अर्थ - १. भूमि खोदना निष्प्रयोजन जल बिखेरना, अग्नि जलाना, पंखा चलाना, आरम्भ करना, वनस्पति छेदन, भेदन, दलन-मलन करना व कराना प्रमादचर्या नामका अनर्थदण्ड है | और भी -
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२. बिना प्रयोजन ही भूमि को खोदना, वृक्षों को काटना, दुर्वांकुर - शैवाल दलनारौंदना, कुचलना, नीर सींचना, पत्ते, फल, सुमन चयन करना आदि कार्य करना अनर्थदण्ड है सत्पुरुषों को नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये कार्य अनर्थदण्ड पाप है ॥ १३ ॥
१४. एवं विधमपरमपि ज्ञात्वा मुंचत्यनर्थदण्डं यः ।
तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसा व्रतं लभते ॥ १४७ ॥ पु. सि...
SASASAGASACSKAVALACHUASTUTYASALSASKEREREMBAUHEASTER धर्मानन्द श्रावकाचार ~२४९