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________________ सम्पादकीय.......... प्रो. टीकमचंद जैन, प्रतिष्ठाचार्य शाहदरा, दिल्ली रत्नगर्भा इस भारत वसुन्धरा को चिरकाल से ऋषि-मुनियों ने अपने प्रवचनामृतोंसे अभिसिंचित किया है। भव्य जीवों के हितार्थ दिगम्बर जैनाचार्यों ने समय-समय पर अपनी दिव्य लेखनी से प्रसूत आगम ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया है। इसी पुनीत श्रृंखला में परम पूज्य चारित्र-चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर, समाधि-सम्राट आचार्य शिरोमणी १०८ श्री आदिसागरजी महाराज अंकलीकर के पट्टाधीश परम पूज्य तीर्थ भक्त शिरोमणी, उपसर्ग विजेता, बहुभाषाविद् आचार्य सम्राट १०८ श्री महावीरकीर्ति जी महाराज ने अपने गहन आगम ज्ञान को नवनीत रूप में प्रस्तुत ग्रन्थ "धर्मानन्द श्रावकाचार" के रूप में प्रस्तुत किया है, ताकि सामान्य जन भी धर्म के मर्म को जानकर, श्रावकोचित क्रियाओं का अनुपालन कर मानव जीवन सार्थक कर सकें और इन्द्रिय विषयों पर नियन्त्रण कर धर्ममय जीवन का आनन्द ले सकें। सरस पद्यों में रचित प्रस्तुत ग्रन्थ दस अध्यायों में विभक्त हैं। प्रथम अध्याय में मिथ्यात्व को छोड़कर रत्नत्रयाराधना की देशना दी गई है, दूसरे अध्याय में सम्यग्दर्शन के आठ अंग, पच्चीस दोष तथा आठ कर्मों का वर्णन है, तीसरे अध्याय में अहिंसा का विस्तृत वर्णन है, चौथे में गृहस्थ के आवश्यक कर्तव्य व मूलगुणों का वर्णन है, पाँचवें में पंचाणुव्रतों का विस्तृत वर्णन है, छट्टे में तीन गुणव्रतों और सातवें में चार शिक्षाव्रतों का वर्णन है। आठवें में सल्लेखना और उसके फल तथा नवमें अध्याय में श्रावक के बारह व्रतों के अतिचारों का पूर्ण उल्लेख है और दसवें अध्याय में ग्यारह प्रतिमा के स्वरूप का सरस पद्यों में विवेचन है। पूरी विषय-वस्तु के शास्त्रीय संदर्भ भी ग्रन्थ में दिये गये हैं।
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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