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सम्मति.........
ज्ञान के बिना संसार में चारों तरफ अंधेरी ही अंधेरा है। कुछ भी नजर नहीं आता, वह गुरू के द्वारा प्राप्त होता है । मारु नहीं तो थोड़ा-थोड़ा । इस उक्ति के अनुसार दिशावलोकन या सिंहावलोकन गुरू ज्ञान से होता है। उसमें गुरू बुद्धि विशेष की प्राप्ति हो जाए तो चराचर पदार्थों के अवलोकन में चार चांद लग जाते हैं और यथार्थता झलकने लगती है।
इस परंपरा के श्रोत परम पूज्य मुनि कुञ्जर समाधि सम्राट आचार्य शिरोमणी श्री आदिसागर जी महाराज अंकलीकर के ज्ञान को उन्हीं के पट्टाधीश आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महाराज ने प्राप्त किया। आपने उस प्राप्त ज्ञान को प्रबोधाष्टक, जिन चतुर्विंशति स्तोत्र, शिव पथ (संस्कृत अनुवाद), धर्मानंद श्रावकाचार, वचनामृत (अंग्रेजी), प्रायश्चित्त विधान (संस्कृत पद्यानुवाद) इत्यादि रूप में गुंठित किया है। .. ये कृतियाँ जनोपकारी के साथ परोपकारी और हितकारी भी है। अविरत सम्यादृष्टि के पश्चात् श्रावक धर्म का क्रम है। इसकी जानकारी होने पर समीचीन क्रियायें या आचरण संभव होता है अन्यथा आचरण होने पर संसार पद्धति या संसार भ्रमणप्राप्त हो जाता है। इससे बचाने के लिए संस्कृत भाषा में गुरूदेव के द्वारा लिपीनद्ध को हिंदी काव्य में लिखा है जिसको कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी पढ़ सकता है, समझ सकता है
और अपनी आत्मा को दुर्गतियों में जाने से बचाकर सुगति स्वर्ग मोक्ष की आनंदानुभूति कर सकता है। प्रस्तुत कृति धर्मानंद श्रावकाचार का जैसा नाम है वैसा ही उसके परिक्षलन से कार्य संभव होगा। उन गुरूदेव की असीम अनुकंपा है जो कल्याणकारी ज्ञान कराने हेतु इसकी रचना करके उपकृत किया है। अतः उनकी अधिक से अधिक गुणानुवाद करके भव पद्धति को दूर कर जिन गुण संपत्ति को प्राप्त करें।
आर्यिका शीतलमति