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________________ BRECTRESUSINResasaraEXEReatmeasasaMRSANSansaexsilsa एक राजा अपरिग्रही, निस्पृही और एक भिखारी होकर भी परिग्रही कैसे हो सकता है उसको दृष्टांत के द्वारा समझाया गया है - एक राजा अरबपति होकर भी यदि वैरागी है, अनासक्त है, धन-वैभव को निस्सार, क्षणभंगुर समझकर छोड़ने की इच्छा से भोग रहा है तो वह परिग्रही रहते हुए भी अपरिग्रही है । और एक भिखारी महलों के सपने देख रहा है, ममत्त्व में लगा हुआ है तो परिग्रही ही है क्योंकि राजा के अप्रमत्त योग है और भिखारी के प्रमत्तयोग है। इसीलिए आचार्यदेव ने बतलाया है कि मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला जो ममत्व परिणाम - यह मेरा है, यह तेरा है इत्यादिरूप है वहीं परिणाम मूर्छा कहलाता है। यही परिग्रह का यथार्थ लक्षण है। जहाँ पर यह लक्षण घटित होता है वहाँ पर परिग्रहपना आता है, जहाँ नहीं घटित होता वहाँ बाह्य परिग्रह रहत हुए भी परिग्रह नहीं कहा जाता। इसलिए मूर्छा ही परिग्रह का निर्दोष लक्षण है ।। २४ ॥ २४. या मूर्छानामेय विज्ञातव्यः परिग्रहो ज्ञेयः। मोहोदयादुदीर्णो मूस्तुि ममत्व परिणामः । २. मूर्छा परिग्रहा इति । ___अर्थ - यहाँ परिग्रह का स्वरूप बताया है। सचित्त, अचित्त, मिश्ररूप अनन्त पदार्थों से भरा संसार परिग्रह नहीं है, अपितु इनके प्रति राग-ममत्व को परिग्रह कहा है। मूर्छा का अर्थ है मोह-ममकार, अहंकार बुद्धि । जिस पदार्थ के प्रति मेरे पने का भाव-आस्था या निष्ठा होती है वही परिग्रह है। आचार्य परमेष्ठी कहते हैं कि मोहनीय, दर्शन मोहनीय कर्मोदय से मिथ्या विपरीत मति की उत्पत्ति होती है। इस मिथ्या मोह से आत्म स्वरूप से भिन्न पदार्थों 'मैं, मेरे हैं और मैं इनका हूँ' इस प्रकार के परिणाम-भाव होते हैं। इसी का नाम परिग्रह है। फलतः इनके संयोग-वियोग में राग-द्वेष का जन्म होता है। संसार भ्रमण होता है। आचार्य परमेष्ठी श्री उमास्वामी जी ने भी कहा है "मूर्छा परिग्रहा:" अर्थाद मोह मूर्छा है और मूर्छा ही परिग्रह है। यह मेरा-तेरा भाव त्याज्य है।। २४॥ MatsaaHARERAKHISAREERSASUSasaratasRTANTRANGEMEER धामनिन्द श्रावकाचार-२३१
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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