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________________ NATASARASWARURAKARARANASAN NARRADA • विपरीत असत्य वस्तु तो और ही रहे, और वस्तु कहि देय । गाय थान घोड़ा कहे, तृतीय असत्य गिनेय ॥ ११ ॥ अर्थ - प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप से ही अपनी सत्ता रखती है, पर स्वरूपसे वह अपनी सत्ता नहीं रखती, फिर भी किसी वस्तु को पर स्वरूपसे कहना यह विपरीत नामक तीसरा असत्य है। जैसे - घर में गौ बैठी है, किसी के पूछने पर उत्तर में कहना कि हमारे घर में घोड़ा बैठा है। इस वचन में वस्तु का सद्भाव तो स्वीकार किया गया है परन्तु अन्य का अन्य रूप कहा गया है।।११।। • चतुर्थ असत्य के भेद प्रथम भेद निन्दित कहा, सावद्य द्वितीय पिछान । अप्रिय तीजो भेद लखि, शेष असत्य सुजान ॥ १२ ॥ १०. असदपि हि वस्तुरूपं, यत्र परक्षेत्र-कालभावस्तेः । उद्भाव्यते द्वितीयं, तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः॥ ९३ ।। पु. सि. अर्थ - जिस वचन में अविद्यमान भी वस्तु स्वरूप, उन भिन्न क्षेत्र, काल भिन्न भावों द्वारा कहा जाता है वह दूसरे प्रकार का असत्य समझना चाहिए। जिस प्रकार यहाँ घट है। यहाँ ज्ञातव्य है कि पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में घट नहीं है तथाऽपि घट रूप में कहना यह द्वितीय प्रकार का असत्य है ।। १०॥ ११. वस्तु सदपि स्वरूपा पररूपेणाऽभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीय विज्ञेयं गौरिति यथा अश्व ।। ९४ ॥ तत्रैव. अर्थ - जिस वचन में अपने स्वरूप से वस्तु का सद्भाव है तो भी पर स्वरूप से कहा जाता है तो वह वचन असत्य है यह तीसरे प्रकार का असत्य भाषण कहा गया है। यथा गौ (गाय) को अश्व (घोड़ा) कहना। इस असत्य में अन्य का अस्तित्व अन्य में आरोपित किया गया है अतः यह असत्य भाषण हुआ।११।। xava APARATAN AKTARANACULARACICAKARANASA धर्मानन्द श्रावकाचार-२१७
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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