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________________ MARANARAMANAN DİGANZANATIONEN VANCUAR Onatatea • वर्तमान असत्य विद्यमान भी वस्तु को, जो निषेध करि देय । जिमि होते भी नहीं कहे, प्रथम असत्य गिनेय ॥ ९ ॥ अर्थ - जो वस्तु अपने स्वरूप से उपस्थित भी है फिर किसी के पूछने पर निषेध कर देना कि वह नहीं है यह प्रथम प्रकार का असत्य है। जैसे- देवदत्त घर में मौजूद है परन्तु किसी ने बाहर से पूछा कि देवदत्त है ? उत्तर में कोई जवाब दे देवे कि वह यहाँ पर नहीं है तो यह असत्य वचन है। इसमें उपस्थित वस्तु का अपलाप किया गया है ॥ ९ ॥ • अवर्तमान असत्य अविद्यमान भी वस्तु को, विद्यमान कह देय । जिमि नहि होते है कहे, द्वितीय असत्य गिनेय ।। १० ।। अर्थ - जो वस्तु अविद्यमान है अर्थात् नहीं है उसे बतलाना कि यहाँ पर है यह दूसरा असत्य का प्रभेद है। जैसे जिस जगह पुस्तक नहीं रक्खी है। किसी के यह पूछने पर कि इस जगह पुस्तक है या नहीं ? यह उत्तर देना कि इस जगह पुस्तक रक्खी है यह दूसरे प्रकार का असत्य है ॥ १० ॥ - ९. स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन् निषिध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ।। ९२ ।। ५. सि. अर्थ - अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अर्थात् स्व चतुष्टय से विद्यमान वस्तु का निषेध कहना यह वचन प्रथम प्रकार का असत्य है । यथा किसी के पूछने पर कि देवदत्त है क्या ? उत्तर देना नहीं है। यद्यपि उत्तर देने वाले के पास उस समय देवदत्त नामक व्यक्ति उपस्थित नहीं है यह तो सत्य है तथाऽपि अपने स्वचतुष्टय से कहीं न कहीं मौजूद है, फिर भी निषेध किया गया है। अतः यह भी असत्य की कोटि में कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि निश्चित वस्तु की विद्यमानता में भी उसका निषेध करना यह प्रथम प्रकार का असत्य है ॥ ९ ॥ SAKACAKTUSESCHERERZALAGAGAGAGAUAGAUZCAESCACSESUARA धर्मानन्द श्रावकाचार २१६ ៩
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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