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________________ SasasianRTUNITARIKeralSUSARASHTRAMANASAMANAR हो गई तो वे उस हिंसा के फल के भागीदार नहीं हो सकते किन्तु भावों के अनुसार अहिंसा के फल के भागीदार ही होते हैं। ब्रह्मपुराण में लिखा है - कर्मणा-मनसा-वाचा ये न हिंसन्ति किञ्चन। तुल्यद्वेष्य-प्रियादान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः॥ सर्वभूतदयापी विश्वास्या सर्वसन्तुषु । त्यक्तहिंस-समाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः॥ ब्रह्म पुराण २२४/८-९ भावार्थ - पार्वती देवी द्वारा यह पूछने पर कि मुक्ति के पात्र कौन होते हैं ? शिव ने उत्तर में कहा - "मन-वचन-काय से जो पूरी तरह अहिंसक रहते हैं और जो शत्रु और मित्र दोनों में समान दृष्टि रखते हैं वे कर्म-बन्धन से छूट जाते हैं। सभी जीवों पर दया करने वाले सभी जीवों में आत्मा का दर्शन करने वाले और मन से किसी जीव की हिंसा न करने वाले स्वर्गों के सुख भोगते हैं। अहिंसा से व्यक्ति का जीवन निष्पाप बनता है, और प्राणी-मात्र को अभय का आश्वासन मिलता है। इस व्यवस्था से प्रकृति के संतुलन को बनाये रखने में भी सहायता मिलती है। पर्यावरण को संरक्षण मिलता है। जीवों के लिए अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है क्योंकि इसके द्वारा प्राणियों की रक्षा होती है और किसी को भी कोई कष्ट, पीड़ा नहीं होती। तथा अहिंसा से भी परंपरा से अविनश्वर, शाश्वत, अचल स्वात्मोत्थ सुख की प्राप्ति होती है ।। ६ ।। ६. मनसा, वचसा वपुषा हिंसां विद्दधातियो जनो मूढः । जनमथ-नेऽसौंदर्य दीर्घ चचूर्यते दुःखी। ___अर्थ - जो व्यक्ति मन, वचन अथवा काय से त्रसादि जीवों का घात करता है वह महामूर्ख, अज्ञानी, पापी है । क्योंकि प्राणियों का मथन मारने रूप पाप से वह कुरूप, दीन-दुःखी होकर बार-बार नरकादि के असह्य दुःख सहन करता है। बहुत काल पर्यन्त संसार परिभ्रमण कर नाना कष्ट सहता है। NORimsamsRGREECIASKEEZEReasarasRaasReceRAISAcsiksandelk धमनिन्द श्रावकाचार-२५१
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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