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SAERTASAREEReactsasrastresamasRMAKASOTRERestaremaSC रहते हैं। आचार्य देव ने यहाँ पर हिंसा के अन्य प्रकार से १०८ भेद बतलाये हैं - पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायकि, नित्य निगोद, इतर निगोद, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असैनी पञ्चेन्द्रिय, सैनी पञ्चेन्द्रिय इस प्रकार बारह भेद होते हैं। इन बारह प्रकार के जीवों के मन से, वचन से तथा काय से हिंसादिक पाप होते हैं जो छत्तीस प्रकार के हो जाते हैं। तथा ये छत्तीसों प्रकार के पाप स्वयं करने, दूसरों से कराने और करते हुये का भला मानने के भेदों से १०८ प्रकार के हो जाते हैं। १२ x ३ x ३ - १०८ ये पाप सदा लगते रहते हैं।
.हिंसा के भेद के साथ हिंसा का स्वरूप भी जानना अतिआवश्यक है। प्रमाद से अपने व दूसरों के प्राणों का घात करना, वा मन को दुःखाना हिंसापाप कहलाता है। हिंसा पाप करने वालों को हिंसक, हत्यारा, निर्दयी कहते हैं। हिंसा के दो भेद हैं। १. द्रव्य हिंसा २. भाव हिंसा ।
प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने वाली और उनका घात करने वाली क्रिया करना द्रव्य हिंसा है तथा प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने का या उनके घात करने का विचार करना, षड्यंत्र रचना भाव हिंसा है। - संकल्पी, आरंभी, उद्योगी एवं विरोधी हिंसा के भेद से वह चार प्रकार की भी बतलाई गई है। उसका स्वरूप आचार्य वर्य ने इस प्रकार बतलाया है।
१. संकल्पी हिंसा - संकल्पपूर्वक किसी प्राणी को पीड़ा देना या उसका वध करना संकल्पी हिंसा है। जैसे आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगे, जाति विरोधी हमलें और मांस भक्षण के लिये जो वध, शिकार आदि से होने वाली हिंसा तथा धार्मिक अनुष्ठानों का बहाना लेकर की जाने वाली बलि आदि भी संकल्पी हिंसा है।
२. आरंभी हिंसा - अपने जीवन के लिये अनिवार्य कार्यों में, भोजन SasasuSReasiesaedeasaNGESANISARSUTERetwasasaraERNA
धमनिन्छ श्रावकाचार २०८