________________
है। सल्लेखना से अहिंसामय निश्चय चारित्र की सिद्धि होती है।
आधि-व्याधि और उपाधि से रहित अवस्था विशेष-मरण विशेष का नाम समाधि : है । मानसिक विकार को आधि कहते हैं, शारीरिक विकार को व्याधि और बुद्धि के । विकार को उपाधि समांध - नन शरीर और बुद्धि के विकारों से परे है। बुद्धि विकार, वासना को जन्म देता है जो समाधि को नष्ट करने में मुख्य कारण है। मनुष्य का जीवन दो धुरियों पर केन्द्रित हैं - एक वासनात्मक दूसरा साधनात्मक । वासना संसार को जन्म देती है, दुःख की वृद्धि करती है। साधना मुक्ति का सोपान है और समाधि का बीज । समाधि की सिद्धि हेतु में व्रतों में लगे अतिचारों को दूर करना भी अनिवार्य है। अतिचार सहित पाला गया व्रत समाधि की सिद्धि में बाधा पहुंचाता है अतः अतिचारों का वर्णन अगले अध्याय में करेंगें।
• नवा अध्याय -
पाँच अणुव्रत, चार शिक्षाव्रत और सल्लेखना के अतिवारों का वर्णन करते हुए इस अध्याय में आचार्य श्री ने इस बात का संकेत किया है अतिचार सहित व्रत संवर और निर्जरा के कारण नहीं होते हैं। जैसा कि कहा भी है -
व्रतानि पुण्याय भवन्ति लोके, न सातिचारानि निवेसितानि । न क्वापि शस्यानि फलन्ति लोके, मलोपलिप्तानि कदाचनापि ॥
अर्थ - व्रत से पुण्य की वृद्धि होती है, आत्म विशुद्धि बढ़ती है पर अतिचार सहित पाला गया व्रत यथार्थ फल नहीं देता है जिस प्रकार मिट्टी सहित रोपे गये चावल के पौधे धान्य राशि को पैदा नहीं करते हैं। बीजारोपण के बाद जब चावल के पौधे लगभग एक बिलम्त के हो जाते हैं तब किसान उन्हें उखाड़ लेता है और उनकी जड़ को अच्छी तरह से धोता है तब पुनः गुच्छे बनाकर रोपता है । जड़ को धोये बिना यदि बोया जाय तो धानोत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार मल-अतिचार सहित व्रताचरण से पुण्य रूपी धान्य की उत्पत्ति नहीं होती है, आत्म विशुद्धि नहीं बढ़ती है, संवर और निर्जरा भी नहीं हो पाती है । अतः प्रत्येक व्रत के अतिचारों को भली-भाँति जानकर उन्हें दूर करना चाहिए। ऐसा इस अध्याय का सार जानकर आत्म हित में लगना चाहिए ।
(२८)