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आता। वह तो स्वसंवेद्य होता है। जब चारित्र मोहनीय कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का क्षय अर्थात् उनके उदय का अभाव होता है और देशघाती स्पर्धकों का उदय रहता है तब राग द्वेष के घटने से निर्मल चिद्रूप की अनुभूति होती है। उस अनुभूति से उत्पन्न हुए सुख का स्वाद उन प्रतिमाओं का अन्तर रूप है । ज्यों-ज्यों उत्तरोत्तर रागादि घटते जाते हैं त्यों-त्यों आगे-आगे की प्रतिमाओं में निर्मल चिद्रूप की अनुभूति में वृद्धि होती जाती है और उत्तरोत्तर आत्मिक सुख भी बढ़ता जाता है। इसके साथ ही श्रावक की बाह्य प्रवृत्ति में भी परिवर्तन आये बिना नहीं रहता। वह प्रतिमा के अनुसार स्थूल हिंसा आदि पापों से निवृत्त होता जाता है। ऐसा सम्यग्दृष्टि श्रावक सतत् यह भावना रखता है कि कब मैं गृहस्थ आश्रम को छोड़कर मुनिपद धारण करूँ ? और तभी उसका प्रतिमा धारण करना सफल माना जाता है।
संदर्भवश इसी प्रकरण में अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत आदि प्रत्येक का लक्षण भी प्रस्तुत किया गया है।
षष्ठो अध्याय -
इसमें तीन गुणव्रतों का वर्णन है। इनसे अणुव्रतों में विशेषता आती है, अणुव्रतों का निर्दोष पालन होता है । अहिंसा की भावना उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती है। अतः उक्त शीलव्रतों को स्वीकार कर आत्महित में लगना चाहिए ।
• सातवाँ अध्याय
इसमें चार शिक्षाव्रतों का वर्णन है। सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। जो व्रतों की विशेष शुद्धि करे उसे शीलव्रत कहते हैं। स्वहित वाञ्छक को इन्हें अवश्य पालना चाहिए ।
● आठवां अध्याय
इसमें सल्लेखना का स्वरूप, विधि, समय का सुन्दर विवेचन है। व्रतों की रक्षा के लिए अतिचारों को दूर करना अनिवार्य है अतः अतिचारों का भी वर्णन किया है। कषायों को कृश करते हुए शरीर का परित्याग होना सल्लेखना है उसे समाधि मरण भी कहते हैं। मैं मरण समय में अवश्य समाधि सिद्ध करूंगा ऐसी भावना वाला श्रावक भी भावना रूप से तो इस व्रत को सदा पालता है और मरण समय में साक्षात् पालता ही (२७)
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