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३६ अंगुल लम्बे और २४ अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके फिर उससे जल छानना चाहिए। पानी छानने के बाद जिस भाग में अनछने पानी का अंश है कपड़े के उस भाग पर छना जल डालकर उस पानी को किसी पात्र में इकट्ठा कर उसी जलाशय में विधिवत् पहुँचाना चाहिए। क्योंकि जीव रक्षण तभी संभव है अन्य प्रकार नहीं ।
जिस प्रकार रात्रि भोजन हिंसा का कारण है ठीक उसी प्रकार बिना छना जल, अमर्यादित जल का सेवन भी हिंसा का कारण है ।। २१ ।।
२१. (अ) वस्त्रेणाति सुपीनेन गालितं तत् पिवेज्जलम् । अहिंसाव्रत रक्षायै मांसदोषापनोदने ॥
अर्थ- गाढ़े वस्त्र से छना हुआ जल पीना चाहिए। सूक्ष्म त्रस जीव पतले वस्त्र से नहीं निकल पाते पानी में ही रह जाते हैं अतः मांस भक्षण के दोष से बचने के लिये अहिंसाव्रत की रक्षा के लिये पानी का विधिवत् छानना ही चाहिए।
और भी - "अंबु गालितशेषं तत्रैव क्षिपेत् क्वचिद पिनान्यतः । यथाकूपजलं नद्यां तज्जलं कूपवारिणी ॥
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अर्थ - पानी छानने के बाद वस्त्र में एकत्रित जीव राशि की सुरक्षा भी यथायोग्य होनी चाहिए। छना पानी डालकर कपड़े के जीव को पात्र में लेना चाहिए और उसी जलाशय में उन्हें योग्य प्रकार से छोड़ देना चाहिए। यदि कुएँ के जल की जीवराशि को कोई नदी में छोड़े और नदी के जल जीव को कुएँ के जल में छोड़े तो वे जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं संकर हो जाने के कारण।
(ब) " षट् त्रिंशदंगुलं वस्त्रं चतुर्विंशति विस्तृतं ।
तवस्त्र द्विगुणीकृत्य तोयं तेन तु गालयेत् ॥
अर्थ- ३६ अंगुल लम्बा, २४ अंगुल चौड़े वस्त्र को द्विगुणी कर (डबलकर)
उससे पानी छानना चाहिए। और भी -
श्लोक - तस्मिन् मध्ये तु जीवानां जलमध्ये तु स्थापयेत् ।
एवं कृत्वा पिवेत् तोयं स याति परमां गतिम् ॥
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धर्मानन्द श्रावकाचार १७९