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SURINARUSAARETRASASINATURALIDIRASAKATA है अतः जीव रक्षा के लिये सदा प्रासुक जल का ही प्रयोग करना चाहिए। __ जिनधर्म के अनुसार प्रासुक जल हो प्रयोग में लाने योग्य है। यह एक बड़ा गौरवशाली धर्म समझा जाता है। जल की शुद्धि अशुद्धि संबंधी कुछ नियम संदर्भ वश जानने योग्य हैं । यथा
१. वर्षा का जल गिरता हुआ - तत्क्षण प्रासुक है। भावपाहुंड ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने लिखा है। भावपाहुड़ टीका - यतिजन वर्षा ऋतु में वर्षायोग धारण करते हैं। वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं। उस समय वृक्ष के पत्तों पर पड़ा हुआ वर्षा का जो जल यति के शरीर पर पड़ता है, उससे उसको अपकायिक जीवों की विराधना का दोष नहीं लगता है क्योंकि वह जल प्रासुक होता है।
जल को प्रासुक करने की विधि व उसकी मर्यादा -
मुहूर्तं गालितं तोयं, प्रासुकं प्रहरद्वयं । उष्णोदमहोरात्रमगालितमिवोच्यते (व्रत विधान पुस्तक)
अर्थ - छना हुआ जल दो घड़ी तक अर्थात् ४८ मिनिट तक प्रासुक बना रहता है। उसके बाद पुनः बिना छने की तरह हो जाता है। हरड़ आदि से प्रासुक किया गया जल दो प्रहर-छह घण्टे तक और उबाला हुआ जल २४ घण्टे तक प्रासुक है, पीने योग्य रहता है उसके पश्चात् हर प्रकार से अप्रासुक है, काम लायक नहीं रहता है।
पानी छानने वाले कपड़े का प्रमाण१. जल को छोटे छेद वाले या पुराने कपड़े से छानना योग्य नहीं। व्रत विधान संग्रह पुस्तक के अनुसार
“षट्त्रिंशदगुलं वस्त्रं चतुर्विंशति विस्तृतम् ।
तवस्त्रं द्विगुणीकृत्य तोयं तेन तु गालयेत् ।। SARARANASANAL BASARAsana ALARANASAsata da ASA
धर्मानन्द श्रावकाचार-१७८