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________________ RURSACRTAKARARAANRANTARA LANGSURANA दया का उपदेश - दया करो यह सब कहत, विरले पालत लोय । बस थावर के ज्ञान बिन, जीव दया नहिं होय ॥ १८॥ अर्थ - 'दया' भाव को सभी लोगधर्म बताते हैं पर जीवों के त्रस स्थावरादि भेदों को न समझ सकने के कारण उनका पालन वे नहीं कर पाते हैं। छहढाला में भी कहा है - "बिन जाने ते दोष गुनन को कैसे तजिये गहिए।" इत्यादि। दया का अर्थ है करूणा भाव । पर के दुःख को देखकर द्रवित होना उनके दुःख निवारण का उपाय सोचना इत्यादि को दया धर्म समझना चाहिए। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में आचार्य लिखते हैं “दीनानुग्रहभावः कारूण्यम्' दीनों पर दया भाव रखना करूणा है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार “दशलक्षण धर्म दया प्रधान है और दया सम्यक्त्व का चिह्न है। पद्मनन्दी पंचविंशतिका ग्रन्थ में दया को धर्म रूपी वृक्ष की जड़ कहा है - "मूलं धर्मतरोराधा व्रतानां धाम संपदाम् । गुणानां निधिरित्यजिदया कार्या विवेकिभिः ॥ अ. ६/३८ । अर्थ - प्राणीदया धर्म रूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, सम्पत्तियों का स्थान है और गुणों का भंडार है। - विशेष - दया का स्वरूप जानकर उसे जीवन में लाने का प्रयास करें पर दया में मोह का पुट नहीं होना चाहिए । धर्मरक्षण पूर्वक प्राणी रक्षण को दया कहा है॥ १८ ॥ • हिंसा के प्रकार और यथायोग्य उनका त्याग - हिंसारंभ उद्योग से, पुनि विरोध से होय। गृही त्यागे इन्हें शक्ति सम, संकल्पी सब खोय ॥ १९॥ AREERENCREAsarasRIKEEKSanmaargesreaRNREAsase धर्मानन्द श्रावकाचार-१७३
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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