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• मद्यपान से हानि -
मद्यपान मन मुग्ध हो, मोहित भूले धर्म ।
धर्म भलि पाप करें, निधड़क हिंसा कर्म ॥ १० ॥
अर्थ - मद्य (शराब) सेवन करने वाले को अहिंसाणुव्रत नहीं पलता है, मद्य सेवन से बेधड़क हिंसा होती है, मदिर मन को मोहित करता है। मोहित चित्त व्यक्ति को भूल जाता है अतः जिनधर्म पालन के लिये सर्वप्रथम मद्य का त्याग करना ही चाहिए || १० ॥ • मधपान में दोष -
सड़कर बहुत शराब में, उपजत विनशत जीव । पीवत हिंसा लगति ध्रुव, अधरमि वनत सदीव ॥११॥
अर्थ - मदिरा, रसों को सड़ाकर उनसे तैयार की जाती है अतः उसमें बहुत जीव राशि की हिंसा है, निरन्तर जीव उत्पन्न होते रहते हैं और मरते भी हैं। मदिरा का सेवन करने वाले को उन असंख्य जीवों की हिंसा का पाप होता ही है अतः अहिंसामय जिनधर्म की प्राप्ति के लिये मदिरा का त्याग करना चाहिए । अहंकार, क्रोध, काम विकार आदि सभी दोषों को उत्पन्न करने वाली मदिरा हर प्रकार से त्यागने योग्य है ॥ ११ ॥
११. (क) मद्यं मोहयति मनो मोहित चित्तस्तु विस्मरति धर्मं ।
विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति । पुरूषार्थ. ६२॥ अर्थ - शराब पीने से मन - विवेक शक्ति नष्ट होती है। अज्ञान का प्रगाढ़ अन्धकार होने से वह व्यक्ति धर्म को भूल जाता है। धर्म की विस्मृति से निडर होकर हिंसा आदि दुष्कर्मों को करता है। शराबी की प्रवृत्ति विशेष पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं -
(ख) “गायति भ्रमति वक्ति गदगद रौति धावति विगाहते दोघे । हंति... UK ANAKANNAU Ageza NARRAXATANGANANA
धमिन्द श्रावकाचार-१६५