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________________ Xana SGRUEBAKALAKKAASABASARASKUUTADARRER लिये मन इन्द्रिय और शरीर के भले प्रकार निरोध करने को तप कहते हैं। कहा भी है - "अनिगहित वीर्यस्य कायक्लेशस्तपः" जो ज्ञानी ध्यानी है वह तपस्वी भी होता है। उक्त गुणों से युक्त आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की सेवा गृहस्थ श्रावकों को प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक करनी चाहिए ॥ ४॥ • स्वाध्याय - गृहस्थ को नित चाहिए, धर्मशास्त्र स्वाध्याय । जिससे संचित अघ नशे, धर्मज्ञान बढ़ि जाय ॥ ५ ॥ अर्थ - गृहस्थ को प्रतिदिन धर्मशास्त्र का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। स्वाध्याय से संचित पाप नष्ट होते हैं क्योंकि स्वाध्याय भी तप है। तत्त्वज्ञान, धर्मज्ञान की वृद्धि भी स्वाध्याय से होती है। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में स्वाध्याय का स्वरूप बताते हुए आचार्य लिखते हैं - "ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः" आलस्य का त्याग कर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय है । चारित्रसार ग्रन्थ के अनुसार- "स्वस्मै हितोऽध्यायः" अपनी आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना स्वाध्याय है। व्यवहार नय से स्वाध्याय का स्वरूप इस प्रकार जिनागम में वर्णित है - "बारह अंग, चौदह पूर्व जो जिनदेव ने कहा है उनको वाचना, उनको पूछना, चिन्तन मनन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय से संवर और निर्जरा विशेष भी होती है । यह जन्म, जरा, मृत्यु, रूपी रोग से मुक्त करने को उत्तम औषधि के समान है। __४. गुरोरेवप्रसादेन लभ्यते ज्ञान लोचनं । समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषं । अर्थ - गुरूकृपा से उस सम्यक्ज्ञान रूपी नेत्र की प्राप्ति होती है जिससे सम्पूर्ण लोक को हाथ में रखे तुष (तिनके) के समान स्पष्ट देखा जा सकता है।॥ ४॥ K aunas UANABACUSURA ARASARANAPANUNQUERA धर्मादाद श्रावकाचार--१५४
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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