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________________ UFUARAUZSABARRETXANASARURARAKAHARAUARACANASTA अर्थ - जो विषयों की आशा के आधीन नहीं है। जो असि, मषि, कृषि आदि जीविका के उपायभूत आरंभ से रहित हैं, जो अन्तरङ्ग तथा बाह्य किसी भी परिग्रह से युक्त नहीं है और जो ज्ञान, ध्यान तथा तप में अनुरक्त हैं वही तपस्वी प्रशंसनीय है - सच्चा साधु है। विषयाशा का अर्थ है - पंचेन्द्रियों के विषय भूत-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, शब्द आदि में इष्टानिष्ट बुद्धि का प्रादुर्भाव। इन्द्रियाँ ५ हैं - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । और उनके विषय सामान्य से पाँच हैं किन्तु विशेषतया सत्ताईस हैं - ५ वर्ण, ५ रस, २ गंध, ८ स्पर्श, ७ स्वर और एक मन का विषय । इनमें से जिनको जीव इष्ट समझता है उनके सेवन की उसकी आकांक्षा होती है वहीं संसार है और वही दुःखों का मूल है, भव भ्रमण का कारण भी है जिन्होंने इस आशा को अपने अधीन बना लिया है वे ही मोक्षमार्गी सच्चे साधु होते हैं। निरारम्भः - विषयों की आशा के वशीभूत प्राणी उन विषयों का संग्रह करने के लिए अनेक तरह के आरंभ में प्रवृत्त होता है। असि, मषि, कृषि आदि में प्रवृत्ति से द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा रूप सावध होता है ऐसे सावध रूप कार्य को आरम्भ कहते हैं। ____ मुनिराज उक्त प्रकार के आरम्भ के त्यागी होते हैं। किसी भी प्रकार से विषय भोगों की इच्छा नहीं रखते और उसके लिये व्यापार भी नहीं करते हैं। अपरिग्रह - जिनको पञ्चेन्द्रिय विषय भोगों में मूर्छा भाव नहीं होता तथा धन-धान्य सोना, चांदी आदि उनके साधनों को भी जो अपने पास नहीं रखते हैं उन्हें परिग्रह त्यागी कहते हैं। ज्ञानी ध्यानी - यहाँ पर ज्ञानी ध्यानी कहने का अभिप्राय निरन्तर श्रुत का अभ्यास करने से है। ज्ञान की स्थिर अवस्था का नाम ध्यान है। ज्ञान जब अन्तर्मुहूर्त तक अपने विषय पर स्थिर रहता है तो उसको ध्यान कहते हैं। कर्मों की निर्जरा के HASRArgesasusawanREWERSAREERSEERNAMAMIRasuSANKER धनियाद श्रावकाचार-१५३
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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