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• हिंसा से जपादि व्यर्थ -
अहिंसा बिन जप तप सकल, व्यर्थ न पाप नशाहिं । जिमि तारागण चंद बिन, तम न हरे निशि माँहि ॥ २७ ॥
IGERE ARE SEVEREKET
अर्थ - अहिंसा के बिना सभी जप, तप आदि धार्मिक कार्य भी व्यर्थ हैं। उनसे पाप का नाश नहीं होता है। जिस प्रकार चन्द्रमा के बिना तारागण की उपस्थिति अन्धकार को नष्ट नहीं कर पाती है ।
जहाँ हिंसा है वहाँ परिणामों की विशुद्धि नहीं रहती फलतः जप, तप आदि बाह्य क्रियायें व्यर्थ चली जाती हैं। पुण्य और पाप का संबंध अपने परिणामों से है । यदि परिणामों में सात्विकता नहीं है तो धार्मिक क्रियायें भी आत्मोन्नति का कारण नहीं बनती, पुण्य कार्य वह नाम मात्र को है यथार्थ में नहीं । जिस प्रकार अंधकार को नाश करने की शक्ति चन्द्रमा में है ताराओं में नहीं ठीक इसी प्रकार पाप क्षय की शक्ति अहिंसा धर्म में है अहिंसा के बिना सम्पादित धर्म क्रियायें तारागणों की भाँति पापान्धकार को नष्ट नहीं कर
पाती हैं ॥ २७ ॥
• निष्पक्षता की आवश्यकता
भो
बुध ! अहिंसा रहस्य को, सोचो तज पक्षपात । सब जीवन की जान को, लखो आप सम भ्रात ॥ २८ ॥
अर्थ - हे सम्यग्ज्ञानी भव्य जीवों! तुम मिथ्या पक्षपातों से छूटकर अहिंसा
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२७. जीव त्राणेन बिना व्रतानि कर्माणि न निरस्यन्ति । चन्द्रेण बिना ऋक्षैर्हन्यते न तिमिर जालानि ।।
भावार्थ - जीव रक्षा के बिना गृहीत व्रत आदि कर्मों की निर्जरा के कारण नही होते हैं अर्थात् पाप बन्ध से छुटकारा जीव रक्षा के बिना असंभव है। यथा - चन्द्रमा के
बिना अकेले नक्षत्रों से रात्रिगत अन्धकार दूर नहीं हो सकता है।
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धर्मानन्द श्रावकाचार १४३