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अर्थ- आत्मघात करना हर प्रकार से पाप ही है उसमें धर्म मानना मिथ्या कल्पना है। अग्नि में कूदकर मरना, गिरिपात, झपापात, समुद्र की लहरों में अपने को समर्पित करना आदि से जो धर्म मानते हैं वह सर्वथा मिथ्यात्व है उक्त प्रकार के कुमरण से जान बूझकर प्राणों का बिना कारण अपघात कर मरने से नरकादि दुर्गति में जाना पड़ता है । अतः सदा स्वपर हित की भावना रखने वाले आचार्य श्री यहाँ अपघात का निषेध करते हैं ॥ २५ ॥
२५. आत्मवधो जीव वध, तस्य रक्षा आत्मनो रक्षा ।
आत्मा नहि हन्तव्यस्तस्यबधस्तेन मोक्तव्यः ॥
अर्थ - जीव वध आत्मवध है, जीव की रक्षा आत्मरक्षा है अतः जीववध छोड़ना चाहिए क्योंकि आत्मघात नहीं करना चाहिए यह बात सर्वमान्य है।
यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः ।
व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः || १७८ ।। पुरुषार्थ ।।
अर्थ - जो कोई वास्तव में क्रोधाविष्ट होकर श्वांस निरोध से, जल, अग्नि, विष, शस्त्र आदिकों से अपने प्राणों को नष्ट करता है उसके आत्मघात अवश्य होता है।
भावार्थ - आत्मघात निन्ध और नरकादि कुगति को ले जाने वाला है अतः उससे विमुख होकर समाधिपूर्वक, सन्यास मरण का अभ्यास करना चाहिए।
सन्यास मरण में हिंसा के हेतु कषाय भाव नहीं रहते अतः सुगति का कारण है। अहिंसामात्माधारां व्याघातेन निपात्यते नरके ।
स्वाधारां शाखां छिंदानाम् कि भूमौ न पतति ? ॥
अर्थ - अहिंसा आत्मा का धर्म है और आत्मा धर्मी है इस अपेक्षा परस्पर में (अविभक्त होने पर भी ) आधार आधेय भाव है। अपने आधारभूत शाखा को भेदने वाला क्या भूमि पर नहीं गिरता ? गिरता ही है इसी प्रकार अहिंसा धर्म के बिना आत्मा भी पतन को प्राप्त होती है धर्म के बिना धर्मी की सुरक्षा भला कैसे संभव है ?
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धर्मानन्द श्रावकाचार १४१