SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *REA ANAMBAKARACARA ATASAVAGALATASARATASARA इसका स्पष्टीकरण आगे के दोहे में हैं - • स्पष्टीकरण अनन्तानुबन्धी को आदि कर, अप्रत्य प्रत्याख्यान । तुर्य संज्वलन वेद त्रय, भार्या क्लीव पुमान ॥५॥ पूर्व कथित भेदों में सबसे अधिक शक्तिशाली अनन्तानुबंधी कषाय है। इसलिये उसका सबसे प्रथम उल्लेख किया है। उत्तरोत्तर हीन हीन शक्ति अनुभाग शक्ति को लिये हुए अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन गत कषायों को यथाक्रम जानना चाहिए। वेद के तीन भेद हैं - नपुंसक वेद, स्त्री वेद, पुरूष वेद। प्रकरण गत इनका स्वरूप भी जानना अनिवार्य है अतः उनका स्वरूप उल्लेख करती हूँ - १. अनन्तानुबन्धी कषाय - जो जीव के सम्यग्दर्शन गुण का घात करती है उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। इनके द्वारा संस्कार अनन्त भवों तक बने रहते हैं अत: अनन्त भवों को बांधना ही जिनका स्वभाव है वे अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में ऐसा भी उल्लेख है - अनन्तसंसार कारणत्वात् मिथ्यादर्शन अनन्तम्, तद्गुबंधिनोऽनन्तानु .....उपर्युक्त सूत्र में मोहनीय कर्म का उत्तर भेदों का नामोल्लेख है - सूत्रार्थ - दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, अकषाय वेदनीय और कषाय वेदनीय। इनके क्रम से तीन, दो, नौ और सोलह भेद हैं । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व ये दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं। कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय ये चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद और नपुंसकवेद ये नौ अकषाय वेदनीय हैं। तथा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये ४ भेद प्रत्येक कषाय के होने से कषाय वेदनीय क्रोध, मान, माया और लोभ संबंधी १६ भेद होते हैं ॥४॥ XaRanasamaAERESERNIERRRRRRRRREmasawarSANGER धर्मामम्द श्रावकाचार-~११९
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy