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"कषायभारगौरवात् अलसता प्रमादो" कषाय के भार से सहित जो आलस्य है उसे प्रमाद कहते हैं। यह प्रमाद शुद्धात्मानुभूति से जीव को विमुख करता है तथा मूलगुण और उत्तरगुणों में मैल पैदा करता है।
प्रमाद से सहित परिणति विशेष को कषाय कहते हैं जो स्व और पर दोनों के प्राणों का घात करता है। प्राण के २ प्रकार हैं- १. द्रव्यप्राण, २. भावप्राण । द्रव्य प्राण के १० भेद हैं जिसका उल्लेख श्री नेमिचन्द्राचार्य ने जीवकाण्ड में इस प्रकार किया है -
पंच विविच कासु तिण्णि बलपाणा । आणापाणप्पाणा, आउगपाणेण होति दस पाणा || अर्थ - पाँच इन्द्रिय प्राण - स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र । तीन बल प्राण- मनोबल, वचन बल और काय बल पुनः श्वासोच्छ्वास और आयु के योग से १० प्रकार के द्रव्यप्राण जिनागम में वर्णित है ।
जो कषाय के आवेश में छेदन, बन्धन, ताडन-मारन क्रिया द्वारा किसी जीव के द्रव्य प्राणों का घात करता है वह भी हिंसा है।
व्यवहार नय से जीव और एक क्षेत्रावगाही शरीरादि १० प्राणों का एकत्व है कायादि प्राणों के साथ जीव का कथंचित् भेद व अभेद है। तपे हुए लोहे के गोले के समान पृथक् नहीं किये जाने के कारण जीव और शरीरादि १० प्राण - दोनों व्यवहार नय से अभिन्न हैं । द्रव्य प्राणों के घात होने पर दुःख की उत्पत्ति होती है अतः व्यवहार नय से प्राण और जीव में अभेद है। यहाँ पर व्यवहार नय की मुख्यता से द्रव्य प्राण के घात स्वरूप पर पीड़ा को भी हिंसा कहा है।
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भावप्राण का संबंध निज रत्नत्रय रूप आत्म धर्म से है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र का घात ही भाव प्राण घात समझना चाहिए। चित् सामान्य रूप अन्वय वाला भाव प्राण है।
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धर्मानन्द श्रावकाचार ११७