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sa URANGKARA ATASAÜSaramagnarah • प्रस्तुत प्रकरण का सारांश
यह रत्नत्रय धर्म ही, करे कर्म वसु चूर। 'महावीर' मोह नींद तज, धरो धर्म भरपूर ॥ ३७॥
अर्थ - यहाँ आचार्य परमेष्ठी श्री महावीरकीर्ति जी अहिंसा धर्म धारण का उपदेश धर्मज्ञ, भव्यात्माओं को जाग्रति प्रदान कर रहे हैं। हे भव्यात्माओं! 'अहिंसा धर्म का जीवन में अवतार करना है तो मोह निद्रा का त्याग करो । मोह कर्त्तव्यविमूढ़ मनुष्य शराबी के समान विवेकशून्य, विचारहीन, स्वार्थी हो जाता है। मोही धर्म स्वरूप से विमुख हो जाता है। मोही के अज्ञान अंधकार में धर्म रूपी अहिंसा का प्रवेश उसी प्रकार नहीं होता जैसे सघन अंधकार युक्त वन प्रदेश में गमन नहीं होता । इसलिए धर्मात्माओं को मोह-राग-द्वेष, विषयकषाय लम्पटता का परिहार करने में सतत् प्रयत्नशील रहना चाहिए । तनिक से भ्राताओं के प्रति होने वाले शुभराग के निमित्त से नकुल व सहदेव समान रूप से उपसर्ग सहने पर भी क्षपक श्रेणी आरोहण नहीं कर सके । फलतः पुनः निर्विकल्प हो उपशम श्रेणी पर आरूढ़ हो सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र पद प्राप्त करें। अब पुन: उन्हें गर्भावास का घोर दुःखानुभव करना पड़ेगा, घोर तप करना होगा तथा मुक्ति प्राप्त करेंगे।
मोहधर्म का प्रमुख, प्रबल शत्रु है। मोह तम है और धर्म प्रकाश है। इसीलिए आचार्य कहते हैं भव्यात्माओं ! जिस प्रकार अंधकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते उसी प्रकार मोह और धर्म का सहसंयोग निवास असंभव है । पूर्ण पुरूषार्थ कर मोह त्याग कर धर्माराधन करो ॥३७॥
इति द्वितीय अध्याय
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आदि श्रावकाचार-४११२