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धर्मरत्नप्रकरणम्
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अंगाई अहिज्जिओ वज्जियावज्जो ॥ ५८ ॥ पंथगपमुहाण तओ पंचण्हसयाण नायगो ठविओ । सुयमुणिवरेण विहिणा सेलगवरी महासत्तो ।। ५९ ।। सुयसूरीवि महप्पा समए आहारवज्जणं काउं । गिरिपुंडरीयसिहरे सहस्ससहिओ सिवं पत्तो ॥ ६० ॥ अह सेलगरायरिसी अणुचियभत्ताइभोगदोसेण । दाहजराईतविओ समागओ सेलगपुरंमि ॥ ६१ ॥ उज्जाणंमि पसत्थे सुभूमिभागंमि तं समोसरियं । सोऊण हट्ठतुट्ठो विणिग्गओ मड्डुगो राया ॥ ६२ ॥ कयवंदणाइकि वो सरीवत्तं वियाणिउं गुरुणो । विभव एहि भंते ! मम गेहे जाणसालासु ॥ ६३ ॥ भत्तोसहाइएहिं अहापवतेहि तत्थ तुम्हाणं । कारेमि जेण किरियं धम्मसरीरस्स रक्खट्ठा ॥ ६१ ॥ पवित्रमिण गुरुणा पारद्वा तत्थ उत्तमा किरिया । निद्धमहुराइएहिं वियडेण य वेज्जवयणाओ ।। ६५ ॥ वेज्जाण कुसलयाए पच्छोसहपाणगाइधुवलाभा । थेवदियहेहि एसो जाओ निरुओ य वलवं च ॥ ६६ ॥ नवरं निदुन्हाइआहारे पाणगे य अगिद्धो । सुहसीलयं पवनो नेच्छ ठाणंतरविहारं ॥ ६७ ॥ बहुसोवि भणिज्जंतो विरमइ नो जाव सो पमायाओ । ताहे पंथगवज्जा मुणिणो मंतेंति एत्थ ॥ ६८ ॥ कम्माइँ नूण घणचिकणाद कुडिलाई वज्जसाराई । नाणड्ढयपि पुरिसं पंथाओ उप्पहं नैति ॥ ६९ ॥ मोत्तूण रायरिद्धिं मोक्खत्थी ताव एस पव्वइओ । संपइ अइप्पमाया बिम्हारियपओयणो जाओ ।। ७० ।। काले न देइ सुत्तं अत्थं न कहेइ पुच्छमाणाणं । आवस्सगाइतति मोतुं बहुमन्नए निदं ॥ ७१ ॥ उबगारी दढमेसो अम्हाणं धम्मचरणहेउत्ता । मो घेतं च इमं जुनंति फुडं न याणामो ॥ ७२ ॥ अहवा किं अम्हाणं कारणरहिएण नीयवासेण । एयं पंथगसाहुं वेयावच्चे निजुंजेमो ॥ ७३ ॥ आपुच्छिऊण सूरिं विहरामो उज्जया वयं सव्वे । कालहरणंपि कीरह जा वेयइ एस अप्पाणं ॥ ७४ ॥ सामत्थिऊण एवं पंथगसाठवित्त गुरुपासे । गुरुसम्मएण सव्वे अन्नत्थ सुहं पविहरति ॥ ७५ ॥ पंधगमुणीवि गुरुणो वेयावच्चं अखंडियं कुणड़ ।
स्वोपज्ञवृत्तियुक्तम्
।। ७७ ।।