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धर्मरत्न
प्रकरणम्
॥ ६९ ॥
विभ्रूणा ते उ || ४ || भो ! भो ! किं चिंताए सयराहं दोवि गिहिमो महुरे । बलियते डिंभाणं न हु दोसो होइ कहयावि ॥ ५ ॥ नवरमहं एगागी तुम्भे सव्वेवि होह एगत्थ । दुग्गेज्झमहं घेच्छं इयरं तुम्भेहि सव्वेषि ॥ ६ ॥ अह सम्मएण तेर्सि गहिओ सिवभूइणा 'अनाएण । गंतूण दाहिणाए महुराए सामिओ सहसा || ७ || इयरेषि उत्तराए महुराए सामिबं गहेऊण । रहवीरपुरं पत्ता जुगवं वद्धाविओ राया ॥ ८ ॥ तुट्ठो दढं नरिंदो महया सिवभृइसाहसेणाह । मग्गसु वरं महाबल ! सुहड ! फुडं नियमणोभिमयं ।। ९ ।। सिवभ्रूणा पवृत्तं जड़ तुट्ठो खुट्टु देहि तो देव ! । मह इच्छियं पयारं नयरे रतिं व दिवसं वा ।। १० ।। एवंति पत्थिषेण पडिवने निवसओ भमड़ एसो । न गणइ कालमकालं अक्खलिओ नयररक्खेहिं ॥ ११ ॥ कयावि मज्झरते अहिए ऊणे व एह कइयावि । भज्जा य जग्गमागा चिह्न जा तस्स आगमणं ॥ १२ ॥ निचिन्ना सासूए साहइ सा तुज्झनंदणो एसो । एइ चिराओ गेहं अपि दुक्खेण जग्गामि ॥ १३ ॥ सा चिंता जइ राया तुट्टो न तहावि एरिसं जुतं । उस्सिखलस्स भमणं ता सिक्खावेमि नियपुत्तं ॥ १४ ॥ तो भगइ सुवसु सुण्हे ! तुममहयं चेव अज्ज जग्गेमि । इय भणिय पिहियदारा पजग्गिया सा सुया तत्तो ॥ १५ ॥ सो मज्झरतसमए उग्घाडावेइ जाव घरदारं । तो भणियं जणणीए रुट्ठाए एरिसं वयणं ॥ १६ ॥ एनियमेत्तनिसार उग्घार्ड जत्थ पेच्छसे दारं । तत्थेव गच्छ पुत्तय न इह गिद्दे जग्गए कोवि ।। १७ ।। जणणीवयणं सोउं गहिओ माणेण माणसे एसो । साहूवयदारं निच्चुघाडं नियह कहवि || १८ || तत्थ नियच्छड़ सूरिं भवसङ्गविवज्जियं जियकसाथ । नाभेण अज्जकण्हं सज्झायंत महुरघोस ॥ १९ ॥ धन्नो एस कयत्थो रहिओ माणायमाणदुक्खेहिं । इय चिततो वैदइ सूरिं भृलुलियभालयलो ॥ २० ॥ भगइ
१ पथंडेण इत्यन्यत्र ॥
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स्वोपज्ञवृत्तियुक्तम्
।। ६९ ।।