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कारिका २०, २१] देवागम विधेय-प्रतिषेध्यात्मक हुआ करता है। जैसे कि साध्यका जो धर्म एक विवक्षासे हेतु ( साधन ) रूप होता है वह दूसरी विवक्षासे अहेतु ( असाधन ) रूप भी होता है। उदाहरणके लिए साध्य जब अग्निमान् है तो धूम उसका साधन–अनुमान-द्वारा उसे सिद्ध करनेमें समर्थ होता है और साध्य जब जलवान् है तो धूम उसका असाधन–अनुमान-द्वारा उसे सिद्ध करने में असमर्थहोता है। इस तरह धूममें जिस प्रकार हेतुत्व और अहेतुत्व दोनों धर्म हैं उसी प्रकार जो कोई भी शब्दगोचर विशेष्य है वह सब अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मोको साथमें लिए हुए होता है।'
शेष भंग भी नय-योगसे अविरोधरूप शेषभंगाश्च नेतव्या यथोक्त-नय-योगतः । न च कश्चिद्विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र ! तव शासने ॥२०॥ 'शेष भंग जो अवक्तव्य, अस्त्यवक्तव्य, नास्त्यवक्तव्य और अस्ति-नास्त्यवक्तव्य हैं वे भी यथोक्त नयके योगसे नेतव्य हैंपहले तीन भंगोंको जिस प्रकार 'विशेषणत्वात्' हेतुसे अपने प्रतिपक्षीके साथ अविनाभावसम्बन्धको लिए हुए उदाहरण-सहित बतलाया गया है उसी प्रकार ये शेष भंग भी जानने अथवा योजना किये जानेके योग्य हैं। ( इन भंगोंकी व्यवस्था ) हे मुनीन्द्र-जीवादि तत्त्वोंके याथात्म्यका मनन करनेवाले मुनियोंके स्वामी वीरजिनेन्द्र !-आपके शासन ( मत ) में कोई भी विरोध घटित नहीं होता है क्योंकि वस्तु अनेकान्तात्मक है।'
वस्तुका अर्थक्रियाकारित्व कब बनता हैएवं विधि-निषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेति चेन्न यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः ॥२१॥