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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १
'इस प्रकार विधि - निषेध - द्वारा जो वस्तु अवस्थित ( अवधारित) नहीं है - सर्वथा आस्तित्वरूप या सर्वथा नास्तित्वरूप से निर्धारित एवं परिगृहीत नहीं है - वह अर्थ - क्रियाकी करनेवाली होती है । यदि ऐसा नहीं माना जाय तो बाह्य और अन्तरंग कारणोंसे कार्यका निष्पन्न होना जो माना गया है वह नहीं बनता - सर्वथा सत्-रूप या सर्वथा असत् - रूप वस्तु अर्थ-क्रिया करनेमें असमर्थ है, चाहे कितने भी कारण क्यों न मिलें, और अर्थ-क्रिया के अभाव में वस्तुतः वस्तुत्व बनता ही नहीं ।'
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धर्म-धर्ममें अर्थभिन्नता और धर्मोकी मुख्य - गौणता धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्त धर्मिणः । अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तद (दा) ङ्गता || २२|| 'अनन्तधर्मा धर्मोके धर्मं-धर्म में अन्य ही अर्थ संनिहित हैधर्मीका प्रत्येक धर्म एक जुदे ही प्रयोजनको लिए हुए है । उन धर्मोमेंसे किसी एक धर्मके अङ्गी ( प्रधान ) होनेपर शेष धर्मोकी उसके अथवा उस समय अंगता ( अप्रधानता ) हो जाती हैपरिशेष सब धर्म उसके अङ्ग अथवा उस समय अप्रधान रूपसे विवक्षित होते हैं ।
उक्त भ्रंगवती प्रक्रियाकी एकाऽनेकादिविकल्पों में भी योजना एकानेक विकल्पादावुत्तरत्राऽपि योजयेत् । प्रक्रियां भङ्गिनीमेनां नयैर्नय- विशारदः ||२३|| 'जो नय - निपुण है वह ( विधि - निषेध में प्रयुक्त ) इस भंगवती (सप्तभङ्गवती ) प्रक्रियाको आगे भी एक-अनेक जैसे विकल्पादिकमें नयोंके साथ योजित करे- जैसे सम्पूर्ण वस्तुतत्त्व कथंचित् एकरूप है, कथंचित् अनेकरूप है, कथंचित् एकाऽनेकरूप है, कथंचित्