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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद १ विशेषण है जो विशेषण होता है वह अपने प्रतिषेध्यके ( प्रतिपक्षधर्मके ) साथ अविनाभावी होता है जैसे कि ( हेतु-प्रयोगमें ) साधर्म्य (अन्वय-हेतु) भेद-विवक्षा ( वैधर्म्य अथवा व्यतिरेक-हेतु )के साथ अविनाभाव-सम्बन्धको लिए रहता है--व्यतिरेक ( वैधH ) के बिना अन्वय ( साधर्म्य ) और अन्वयके बिना व्यतिरेक घटित नहीं होता।'
नास्तित्वधर्म अस्तित्वके साथ अविनाभावी नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्मिणि । विशेषणत्वाद्वैधयं यथाऽभेद-विवक्षया ॥१८||
( इसी तरह ) एक धर्मोमें नास्तित्वधर्म अपने प्रतिषेध्य( अस्तित्व ) धर्मके साथ अविनाभावी है-अस्तित्वधर्मके बिना वह नहीं बनता—क्योंकि वह विशेषण है-जो विशेषण होता है वह अपने प्रतिषेध्य ( प्रतिपक्ष ) धर्मके साथ अविनाभावी होता है-जैसे कि ( हेतु-प्रयोगमें ) वैधर्म्य ( व्यतिरेक-हेतु ) अभेदविवक्षा (साधर्म्य या अन्वय-हेतु) के साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए रहता है-अन्वय ( साधर्म्य ) के बिना व्यतिरेक (वैधर्म्य) और व्यतिरेकके बिना अन्वय घटित ही नहीं होता।'
शब्दगोचर-विशेष्य विधि-निषेधात्मक विधेयप्रतिषेध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः । साध्यधर्मों यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥१६॥
'जो विशेष्य (धर्मी या पक्ष ) होता है वह विधेय तथा प्रतिषेध्य-स्वरूप होता है—विधिरूप अस्तित्वधर्म और निषेधरूप नास्तित्वधर्म दोनोंको अपना विषय किये रहता है; क्योंकि वह शब्दका विषय होता है जो जो शब्दका विषय होता है वह सब विशेष्य