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कारिका १६, १७ ]
देवागम
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रूपसे असत्त्व है उसी रूपसे सत्त्वको माना जाय, तो कुछ भी घटित नहीं होता । अतः अन्यथा माननेमें तत्त्व या वस्तुकी कोई व्यवस्था बनती ही नहीं, यह भारी दोष उपस्थित होता है । '
उभय तथा अवक्तव्यकी निर्दोष मान्यतामें हेतु क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं सहाऽवाच्यमशक्तितः । वक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ॥ १६ ॥
'वस्तुतत्त्व कथञ्चित् कम-विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा द्वैत -- ( उभय ) रूप – सदसद्रूप अथवा अस्तित्वनास्तित्वरूप — है और कथञ्चित् युगपत् विवक्षित स्व-परचतुष्टयकी अपेक्षा कथनमें वचनको अशक्ति - असमर्थता के कारण अवक्तव्यरूप है | ( इन चारोंके अतिरिक्त ) सत् असत् और उभयके उत्तर में अवक्तव्यको लिए हुए जो शेष तीन भंगसदवक्तव्य, असदवक्तव्य और उभयावक्तव्य — हैं वे (भी) अपनेअपने हेतुसे कथञ्चित् रूपमें सुघटित हैं — अर्थात् वस्तुतत्त्व यद्यपि स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा कथञ्चित् अस्तिरूप है तथापि युगपत् स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा कहा न जा सकनेके कारण अवक्तव्यरूप भी है और इसलिए स्यादस्त्यवक्तव्यरूप है; इसी तरह स्यान्नास्त्यवक्तव्य और स्यादस्ति नास्ति - अवक्तव्य इन दो भंगोंको भी जानना चाहिए ।'
अस्तित्त्वधर्म नास्तित्वके साथ अविनाभावी
अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽविनाभाव्येक धर्मिणि । विशेषणत्वात्साधर्म्यं यथा भेद-विवक्षया ॥१७॥
एक धर्मो में अस्तित्वधर्म नास्तित्वधर्मके साथ अविनाभावी है - नास्तित्वधर्मके बिना अस्तित्वधर्म नहीं बनता — क्योंकि वह