________________
कारका ३ ]
देवागम
है; क्योंकि ) वह ( विग्रहादि - महोदय ) रागादिसे युक्त – रागद्वेष-काम-क्रोध-मान- माया लोभादि कषायोंसे अभिभूत —स्वर्गके देवों में भी पाया जाता है - वही यदि महानता एवं आप्तताका हेतु हो तो स्वर्गोंके रागी, द्वेषी, कामी तथा क्रोधादि - कषाय - दोषोंसे दूषित देव भी महान् पूज्य एवं आप्त ठहरें; परन्तु वे वैसे नहीं हैं, अतः इस 'अन्तर्बाह्य विग्रहादि महोदय' विशेषणके मायावियोंमें न पाये जानेपर भी रागादिमान् देवोंमें उसका सत्त्व होनेके कारण वह व्यावृत्ति - हेतुक नहीं रहता और इसलिए उससे भी आप - जैसे आप्त-पुरुषोंका कोई पृथक् बोध नहीं हो सकता ।'
( यदि यह कहा जाय कि घातिया कर्मोंका अभाव होनेपर जिस प्रकारका विग्रहादि - महोदय आपके प्रकट होता है उस प्रकारका विग्रहादि - महोदय रागादियुक्त देवोंमें नहीं होता तो इसका क्या प्रमाण ? दोनोंका विग्रहादि - महोदय अपने प्रत्यक्ष नहीं है, जिससे तुलना की जा सके । यदि अपने ही आगमको इस विषयमें प्रमाण माना जाय तो यह हेतु भी 'आगमाश्रित ठहरता है और एक मात्र इसीसे दूसरोंको यथार्थ वस्तु स्थितिका प्रत्यय एवं विश्वास नहीं कराया जा सकता । अतः यह विग्रहादि - महोदय हेतु भी आपकी महानता व्यक्त करनेमें असमर्थ होनेसे मेरे जैसोंके लिए उपेक्षणीय है । )
तीर्थंकरत्व भी आप्त- गुरुत्वका हेतु नहीं; तब गुरु कौन ? तीर्थकृत्समयानां च परस्पर विरोधतः । सर्वेषामासता नास्ति, कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥ ३॥
' ( यदि यह कहा जाय कि आप तीर्थंकर हैं—संसारसे पार उतरनेके उपायस्वरूप आगम-तीर्थ के प्रवर्तक हैं— और इसलिए आप्त- सर्वज्ञ होनेसे महान् हैं, तो यह कहना भी समुचित प्रतीत