________________
६
its
समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १
नहीं होता; क्योंकि तीर्थंकर तो दूसरे सुगतादिक भी कहलाते हैं और वे भी संसारसे पार उतरने अथवा निर्वृति प्राप्त करनेके उपायस्वरूप आगमतीर्थ के प्रवर्तक माने जाते हैं, तब वे सब भी आप्त - सर्वज्ञ ठहरते हैं, अतः तीर्थंकरत्व हेतु भी व्यभिचार - दोषसे दूषित है । और यदि सभी तीर्थंकरों को आप्त अथवा सर्वज्ञ माना जाय तो यह बात भी नहीं बनती; क्योंकि ) तीर्थंकरोंके आगमों में परस्पर विरोध पाया जाता है, जो कि सभीके आप्त होनेपर न होना चाहिए । अतः इस विरोधदोषके कारण सभी तीर्थंकरोंके आप्तता — निर्दोष - सर्वज्ञता - घटित नहीं होती ।
( इसे ठीक मानकर यदि यह पूछा जाय कि क्या उन परस्पर विरुद्ध आगमके प्ररूपक सभी तीर्थंकरोंमें कोई एक भी आप्त नहीं है और यदि है तो वह कौन है ? इसका उत्तर इतना ही है कि ) उनमें कोई तीर्थंकर आप्त अवश्य हो सकता है और वह वही पुरुष हो सकता है जो चित् ही हो — चैतन्यके पूर्ण विकासको लिए हुए हो, अर्थात् जिसमें दोषों तथा आवरणोंकी पूर्णतः हानि होकर शुद्ध चैतन्य निखर आया हो ।'
दोषों तथा आवरणोंकी पूर्णतः हानि संभव दोषाssवरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो वहिरन्तर्म लक्ष्यः || ४ ||
' ( यदि यह कहा जाय कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिसमें अज्ञान - रागादिक दोषों तथा उनके कारणभूत कर्म-आवरणोंकी पूर्णतः हानि सम्भव हो तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि ) दोषों तथा दोषोंके कारणोंकी कहीं-कहीं सातिशय हानि देखने में आती है— अनेक पुरुषों में अज्ञान तथा राग-द्वेष-काम-क्रोधादिक दोषोंकी