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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १
रूपसे लक्षित नहीं किया जा सकता और न दूसरोंपर उसे ख्यापित ही किया जासकता है ।'
( यदि यह कहा जाय कि उन मायावियोंमें ये अतिशय सच्चे नहीं होते - बनावटी होते हैं - और आपके साथ इनका सम्बन्ध सच्चा है तो इसका नियामक और निर्णायक कौन ? आगमको यदि नियामक और निर्णायक बतलाया जाय तो आगम उन मायावियों का भी है – वे अपने वचनरूप आगमके द्वारा उन अतिशयोंको मायाचारजन्य होनेपर भी सत्य ही प्रतिपादित करते है । और यदि अपने ही आगम ( जैनागम ) को इस विषय में प्रमाण माना जाय तो उक्त हेतु आगमाश्रित ठहरता है, और एक मात्र उसीके द्वारा दूसरोंको यथार्थ वस्तुस्थितिका प्रत्यय एवं विश्वास नहीं कराया जा सकता हेतु आपकी महानता एवं आप्तताको व्यक्त करनेमें असमर्थ है और इसीसे मेरे जैसोंके लिए एक प्रकारसे उपेक्षणीय है । )
अतः उक्त कारण- कलापरूप
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बहिरन्तर्विग्रहादिमहोदय आप्त- गुरुत्वका हेतु नहीं अध्यात्मं बहिरप्येष विग्रहादि - महोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ॥२॥ 'यह जो आपके शरीरादिका अन्तर्बाह्य महान् उदय हैअन्तरंग में शरीर क्षुधा तृषा जरा रोग अपमृत्यु आदिके अभावको और बाह्यमें प्रभापूर्ण अनुपम सौन्दर्य के साथ गौर-वर्ण-रुधिरके संचार सहित निःस्वेदता, सुरभिता एवं निर्मलताको लिए हुए है— जो साथ ही दिव्य है— अमानुषिक है—तथा सत्य हैमायादिरूप मिथ्या न होकर वास्तविक है और मायावियोमें नहीं पाया जाता —, ( उसीके कारण यदि आपको महान, पूज्य एवं आप्तपुरुष माना जाय, तो यह हेतु भी व्यभिचार - दोष से दूषित